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प्रध्यप्रपर्व, तृतीय भाग ]

+ गोचचर-भूषिके उत्सर्ग तथा लघु उद्यानोंकी प्रतिष्ता-विधि «

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भी दक्षिणा देकर संतुष्ट करे एवं अन्य सदस्योंको भी प्रसन्न

करें। अनन्तर यजमान स्थापित अधिकलदाके जलसे खान

करे । सूर्यसतसे पूर्व ही पूर्णाहुति सम्पन्न करे। सम्पूर्ण कार्य

पूर्णकर अपने घर जाय और विप्रोंके द्वारा वहाँ बल, काम,

हयप्रीव, माधव, पुरुषोत्तम, वासुदेव, धनाध्यक्ष और

नारायण--इन सबका विधिवत्‌ स्मरण कर पूजन कराये और

पद्चगव्यमिश्रित दधि-भातका नैवेद्य समर्पित करे ।

चलः आदि देवत्ताओकी पूजा करनेके पश्चात्‌ दक्षिणकी

ओर "स्योना पृथिवी" (यजु ३५।२१) इस मन््रसे

पृथ्वोदेवीका पूजन करे । मधुमिश्रित पायसान्नका नैवेद्य अर्पित

करे । पृथ्वीदेवी शुद्ध काञ्चन वर्णकी आभासे युक्त हैं। हाथमें

वरद और अभयमुद्रा धारण किये हुए हैं। सम्पूर्ण अलंकारोंसे

अलेकृत हैं। घरके वाम भागमें विश्वकर्माका यजन करे ।

"विश्वकर्मन्‌" (ऋ० १०।८१।६) यह मन्त्र उनके पूजने

विनियुक्त है। भगवान्‌ विश्वकर्माका वर्ण शुद्ध स्फटिकके

समान है, ये यूल और टंकको धारण करनेवाले हैं तथा

शान्तस्वरूप हैं। इच्हें मधु और पिष्टककी बलि दे। अनन्तर

कौष्माण्डसूक्त तथा पुरुषसूक्तका पाठ करें। इसी पृथ्वी-होम-

कर्ममें मधु और पायस-युक्त हृविष्यसे आठ आहुतियाँ दे तथा

अन्य देवताओंक एक-एक आहुति दे ।

उद्यानके चारों ओर अथवा बीच-बीचमें उद्यानकी रक्षाके

लिये मेड़ॉंका निर्माण करे, जिन धर्मसेतु कहा जाता है।

उद्यानकी दृढ़ताके ल्त्ये विशेष प्रबन्ध करे । धर्मसेतुका निर्माण

कर उनसे इस प्रकार प्रार्थना करे--

पिच्छिछे पतितान्तै ख उत्छितेनाडुसंगतः ॥

अ्रतिष्ठिते धर्मसेता धर्मों मे स्यान्न पातकम्‌ ।

ये चात्र प्राणिनः सन्ति रक्षो कुर्वन्ति सेतवः ।

वेदागयेन यत्पुण्य तशैल हि समर्पितम्‌ ॥

{ मध्यमपरवं ३। ६ | ४४७०-४६)

तात्पर्य यह कि यदि कोई व्यक्ति इस धर्षसेतु (मेद) पर

चलते समय गिर जाय, फिसल जाय तो इस धर्मसेतुके

निर्माणका कोई पाप मुझे न को! क्योंकि इस धर्ममेतुका

निर्माण मैंने धर्मकी अभिवृद्धिक लिये ही किया है) इस

स्थानपर आनेवाले प्राणियोकी ये धर्मसेतु रक्षा करते हैं।

वेदाध्ययन आदिसे जो पुण्य प्राप्त होता है, वह पुण्य इस धर्म-

सेतुके निर्माण करनेपर प्राप्त होता है। (अध्याय १)

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गोचर-भूमिके उत्सर्ग तथा लघु उद्यानोंकी प्रतिष्ठा-विधि

( भात्तमे पहले सभी गम-तगरेकी सभी दिशा ओभे कुछ दूरतक गोचर-भूमि रहती धी । उसमें गाये खच्छन्द-रूपते

चरती थीं और वह भूमि सर्वसामान्यके भी घूमने-फिरनेके उपयोगमें आती धी । छोटे-छोटे बालक भी उसमें क्रीड़ा करते थे ।

यह प्रधा अभी कुछ दिनों पहलेतक थीं, पर अब वह सर्वथा लुप्त हो गयी है, इससे गो-थनकी बड़ी हानि हुई है। जिसका

फल प्रकृति अनावृष्टि, शकण महति (महँगी), दुष्कालकी स्थिति, भूकम्प, महायुद्ध और सर्वत्र निर्दोष लोगोंकी हत्याके रूपमें

परोक्ष तथा उत्यक्ष-रूपसे दे रही है । इसकी तिवृत्तिका एकमात्र समाधान है प्राचीन पुराणोक्त सदाचार, गो-सेवा और

आस्िकतापूर्ण आध्यात्मिक दृष्टिका पुनः अनुसंधान और अनुसरण करना । भला, भजक दशासे, जहाँ किसीको भी किसी

भी स्थितियों तनिक भी ज्ञान्ति नहीं है, इससे अधिक और चिन्ताकी बात क्वा हो सकती है ! इस दृष्टिसे यह अध्याय विशेष

महत्वका है और सभी प्राठकॉको अत्यन्त प्रवलपूर्वक अपने-अपने ग्राम-नगरोके चतुर्दिक्‌ गोचरका या गो-प्रचार- भूमिका उत्सर्ग

कर गो-संरक्षणमें हाथ बैंटाना चाहिये /--सम्पादक

सूतजी कहते है ~ ब्राह्मणो ! अब मैं गोचर-भूमिके

विषयमे बता रहा हूँ, आप सुनें। गोचर-भूमिके उत्सर्ग कर्मे

सर्वप्रथम लक्ष्पीके साथ भगवान्‌ विष्णुकी विधिके अनुसार

पूजा करनी चाहिये । इसी तरह ब्रह्म, रुद्र, करालिका, वराह,

सोम, सूर्य और महादेवजीका क्रमाः विविध उपचारोंसे पूजन

करे । हवन-कर्ममें लूक्ष्मीनारायणक्त्रे तीन-तीन आहूतियां घीसे

दे। क्षत्रपालोको मधुमिश्रित एक-एक ल्मजाहुति दै ।

गोचरभूमिका उत्सर्गं कर्के धिधानके अनुसार यूपकी स्थापना

करे तथा उसकी अर्चना करे । वह यूप तीन हाथका ऊँचा और

नागफणोंसे युक्त होना चाहिये । उसे एक हाथसे भूमिके मध्यमे

गाड़ना चाहिये। अनन्तर "विश्वेषा०' ( ऋ" १० । २।६) इस

मन्तरका उच्चारण करे और “नागाधिपतये जमः", "अच्युताय

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