मध्यम्रपर्व, द्वितीय भाग ]
कक अतिष्ठा-मुहूर्त एवं जल्प्रश्नय आदिकी अतिष्ठा -विधि जे
स्र३े
अन्य देवताओंका यथाक्रम पूजन करे । मण्डलके मध्यमे
शक्ति, सागर, अनन्त, पृथ्वी, आधारशक्ति, कुर्म, सुमेरु तथा
मन्दर और पश्चतत्त्वॉका साद्गोपाञ्न पूजन करे । पूर्व दिशामें
कलूदाके ऊपर श्रेत अक्षत और पुष्प केकर भगवान्
वरुणदेवक/ आवाहन करें। वरुणकों आठ मुद्रा दिखाये।
गायत्रीसे स्नान कराये तथा पाद्य, अर्य, पुष्पाञ्जलि आदि
उपचारोंसे वरुणका पूजन करे । ग्रहों, ल्लोकपात्में, दस
दिक्पालों तथा पीठपर ब्रह्मा, शिव, गणेश और पृथ्वीका गन्ध,
चन्दन आदिमे पूजन करे । पीठके ईशानादि कोणो कमत्म्र,
अम्विका, विश्वकर्मा, सरस्वती तथा पूर्वादि द्वारोंमें उनचास
मरुद्रणोंका पूजन करे । पीठके बाहर पिरच, राक्षस, भूत,
बेताल आदिकी पूजा करे। कलदापर सूर्यादि नवग्रहोंका
आवाहन एवं ध्यानकर पाद्म, आर्घ्य, गन्ध, अक्षत, पुष्प, नैवेद्य
एवं बलि आदिद्राा घत्रपूर्कक उनकी पूजा करे और उनकी
पताक उन्हें निवेदित करें। विधिपूर्वकः सभी देवताओंका
पूजनकर द्ञातरुद्रियका पाठ करना चाहिये। हवन केके
रथन्तरसाम तथा रक्षोघ्न आदि सूक्तोंका पाठ करना चाहिये।
अपने गृद्ोक्त-विधिसे कुष्टं अग्रि प्रदो्त कर हवन करना
चाहिये। जिस देवका यज्ञ होता है अथवा जिस देवताकी
प्रतिष्ठा हो उसे प्रथम आहतियाँ देनी चाहिये। अनन्तर तिल,
आन्य, पायस, पतर, पुष्प, अक्षत तथा समिधा आदिसे अन्य
देबताओंके मन्त्रोंसे उन्हें आहुतियाँ देनी चाहिये ।
पञ्चदिवसात्मक प्रतिप्रायागमें प्रथम दिन देवताओंका
आवाहन एवं स्थापन करना चाहिये। दूसरे दिन पूजन और
हवन, तीसरे दिन बलि-प्रदान, चौथे दिन चतुर्थीकर्म और
पाँचवें दिन नीराजन करना चाहिये। नित्वकर्म करनेके अनन्तर
ही नैमित्तिक कर्म करने चाहिये। इसीसे कर्मफलको प्राप्ति
होती है।
महास्रान तथा मन्त्राभिषेक कराये, तदनन्तर चन्दन आदिसे उसे
अनु्िष करे । तत्पश्चात् आचार्य आदिकी पूजाकर उन्हें
अलफृत कर गोदान करें। फिर मङ्गल-पोषपूर्वक तालाबमें
जल छोड़नेके लिये संकल्प करे । इसके बाद उस तालाबके
जलम नागयुक्त वरुण, मकर, कच्छप आदिकी अलंकृत
प्रतिमाएँ छोड़े । वरुणदेवकी विक्ेषरूपसे पूजा कर उन्हें अर्य
निवेदित करे । पुनः उसी तालानके जल, सप्तमृत्तिका-मिश्रित
जल, तीर्थ-जल, पञ्चामृत, कुझोदक तथा पुष्पजरः आदिसे
वरुणदेक्को खान कराकर ग, पुष्प, धृप, दीप, नैवेद्य आदि
पदान करे । सभी देवताओंको बलि प्रदान करे। मड़ुसू्घोषके
साथ नीराजन कर प्रदक्षिणा करे । एक वेदोपर भगवान् वरुण
तथा पुष्करिणीदेवीकी यथाशक्ति स्वर्ण आदिको प्रतिमा बनाकर
भगवान् वरूणदेकके साथ देवी पुष्करिणीका बियाह कराकर
उन्हें वरुणदेकके लिये निवेदित कर दे । एक काषठको यूप जो
यजमानकी ऊँचाईके बराबर हो, उसे अलेकृत कर तड़ागके
ईशान दिज्ञामें मन््पर्वक गाड़कर स्थिर कर दे। प्रासादके
ईशानकोणमें, प्रषाके दक्षिण भागम तथा आवासके मध्यमे
यूप गाड़ना चाहिये। इसके अनन्तर दिक््पाल्लेंको बलि प्रदान
करे । ब्राह्मणोंकों भोजन एवं दर्णा प्रदान करे ।
उस तड़ागके जलके मध्यमें 'जलमातृभ्यो नपः' ऐसा
कहकर जलमातृकाओंका पूजन करे ओर मातृकाओंसे प्रार्थना
करे कि मातृका देवियों! तीनों लेकरके चराचर प्राणियोंकी
संतृप्तिके लिये यह जल मेरे ड्वाश छोड़ा गया है, यह जर
संसारके लिये आनन्ददायक हो। इस जलाशयकी आपलोग
रक्षा करें । ऐसी ही मड्जल-प्रार्थना भगवान् वरुणदेवसे भी करे।
अनन्तर वरूणदेवक्छ बिम्ब, पद्म तथा नागपुद्राएँ दिखाये।
ब्राह्मणोंक्रो उस जलाशयका जल भी दक्षिणाके रूपमें प्रदान
करे। अनन्तर तर्पण कर अग्रिकी प्रार्थना करे। स्वयं भी उस
अलका पान करे । पितरोंको अर्ध्यं प्रदान करे । अनन्तर पुनः
करुणदेक्की प्रार्थना कर, जल्मज्ञयकी प्रदक्षिणा के । फिर
ब्राह्मणोंद्वारा वेद-ध्वनियोंके उच्चारणपूर्वक यजमान अपने घरमें
प्रवेश करें और ब्राह्मणों, दीनो, अन्धो, कृपणो तथा
कुमारक ओके भोजन कराकर संतुष्ट करे तथा भगवान्
सूर्यको अर्यं प्रदान करे । (अध्याय १९--२६)
॥ मध्यमपर्व, द्वितीय भाग सम्पूर्ण ॥
पिर के