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* पुराणे परमे पुण्यं भविष्यं सर्वसौख्यदम् +
[ संक्षिप्त भविष्यपुराणाडू
“ैश्वानर (यजु २६।७) इस मनत्रसे कुष्ड आदिमे
अप्रि-स्थापन करे। 'बश्चासि०' इस मख्रसे अभ्रिकी प्रदक्षिणा
करे तथा अग्निदेवको नमस्कार करें। अग्निके दक्षिणमें चरण
किये गये ब्रहमाको कुदाके आसनपर 'ब्रह्मन इह उपविश्यताम'
कहकर बैठाये। उस समय “ब्रह्म जज़्ानं*' ( यजुः १३।३)
तथा "कोग्धी धेनुः* इन दो मन्तरौका पाट करे। अग्निके
उत्तरभागमें प्रणीता-पात्रकों स्थापित करें। “हमं मे खरूणर'
(यजुः २१। १) इस मन्कसे प्रणीता-पात्रकों जलसे भर दे।
इसके अनन्तर कुष्डके चारों ओर कुश-परिस्तरण करें और
कष्ठ (समिधा), व्रीहि, अन्न, तिर, अपूप, भृङ्गराज, फल,
दही, दूध, पनस, नारिकेल, मोदक आदि यज्ञ-सम्बन्धौ प्रयोज्य
पदार्थोंको यथास्थाय स्थापित करे । विकंकतवृक्षकी लकडीसे
बनी स्रुवा तथा ङामौ, दामीपत्र, चरुस्थाली आदि भी स्थापित
करे । फ्रणीता-पात्रका स्पर्श होस-काल्ममें नहीं करना चाहिये ।
स्रान-कुम्भको यज्जपर्यन्त स्थिर रखना चाहिये । प्रादेशमात्रके दो
पवित्रकं बनाकर प्रोक्षणी-पात्रमें स्थापित करे । प्रणीता-पात्रके
जलसे प्रोक्षणी-पात्रमें तीन बार जल डाले । प्रोक्षणी-पात्रको
बायें हाथमें रखकर मध्यमा तथा पवित्रक प्रहण कर
"पवित्र ते*' (ऋ ९।८३। १) इस मजसे तीन बार जल
छिड़के, स्थापित पदार्थोका प्रोक्षण करे और प्रोक्षणी-पात्रकों
प्रणीता-पाश्रके दक्षिण-भागमें यथास्थान रख दे । प्रादेशमात्रके
अन्तरम आज्यस्थाली रखे । घीको अग्रिमें तपाये, घोमेंसे
अपद्र्व्योका निरसन करे । इसके बाद पर्यग्रकरण करे | एक
जलते हुए आगके अंगारेको लेकर आज्यस्थाली और
चरुष्थालीके ऊपर भषण कराये । इस समय 'कुलायिनी*'
(यजु १४॥ २) इस मन्त्रका पाठ के । अनन्तर स्तुबाको दाये
हाथमें ग्रहण कर अप्रिपर तपाये। सम्पार्जन-कुझाओंसे
सनुवाको मूलसे अग्रभागकी ओर सम्मार्जित करें। इसके कद
प्रणीताके जलसे तीन वार प्रोक्षण करे । पुनः ल्ुवाकों आगपर
तपाये और प्रोक्षणीके उत्तरकी ओर रख दे। आज्यपात्रको
सामने रख ठे । पतित्रीसे घौका तीन बार उत्पवन कर ले।
पवित्रीसे ईशानसे आरम्भकर दक्षिणावर्त होते हुए ईशानपर्यन्त
पर्युक्षण करे। अनन्तर अग्निदेवक इस प्रकार ध्यान करें--
"अग्नि देवताका रक्त वर्ण है, उनके तीन मुख हैं, ये अपने वाये
हाथमे कमण्डलु तथा दाहिने हाथमे सुवा ग्रहण किये हुए हैं।'
ध्यानके अनन्तर सुवा लेकर हवन करे।
इस प्रकार स्वगुद्ोक्त विधिके द्वारा ब्रह्मा तथा ऋत्विजोंका
वरण करना चाहिये । कुदाकण्डिका-कर्स करके अप्निका पूजन
करें। आधार, आज्यभाग, महाव्याहति, प्रायश्चित्त, प्राजापत्य
तथा स्विष्टकृत् हवन करें। प्रजापति और इन्द्रके निमित्त दी
गयी आहुतियाँ आघारसंज्ञक हैं। अग्रि और सोमके निमित्त दी
जानेवाली आहुत्तियाँ आज्यभाग कहत्मती हैं। “भूर्भुवः
स्वः ये तीन महाव्याइतियाँ हैं। "अयाश्चाञ्ने” इत्यादि पाँच
मन्त्र प्रायश्चित्त-संज्ञक हैं। एक प्राजापत्य आहुति तथा एक
स्विष्टकृत् आहूति --इस प्रकार होममें चौदह आहुतियाँ
नित्य-संज्ञक हैं। इस प्रकार चतुर्दश आहुत्यात्मक हवन कर
कर्म-निभित्तक देवताको उदङ्यकर प्रधान हवन करना
चाहिये। अग्निकी सात जिह्वा कही गयी हैं, जिनके नाम इस
प्रकार दै-- (१) हिरण्या, (२) कनका, (३) रक्ता, (४)
आरक्ता, (५) सुप्रभा, (६) बहुरूपा तथा (७) खती । इन
जिद्धा-देवियकि ध्यान करनेसे सम्पूर्ण फलकी प्राप्ति होती दै ।
(अध्याय ६४-- ६६)
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अधिवासनकर्म एवं यज्ञकर्ममें उपयोज्य उत्तम ब्राह्मण तथा धर्मदेवताका स्वरूप
सूतजी कहते है -- ब्राह्मणो ! देव-प्रतिष्ठाके पहले दिन
देवताओंका अधिवासन करना चाहिये और विधिके अनुसार
अधिवासनके पदार्थ धान्य आदिकी प्रतिष्ठाकर यूप आदिक
भी स्थापित कर लेना चाहिये । कलद्के ऊपर गणेज्जीकी
स्थापना कर दिक्पाल और ग्रहोंका पूजन करना चाहिये । तड़ाग
तथा उद्यानकी प्रतिष्ठाय प्रधानरूपसे ब्रहकी, रान्ति यागे
तथा प्रपायागमे वरुणकी, दौव-परतिष्ठाते हिक्की और सोम,
सूर्य तथा विष्णु एवं अन्य देवताओंक भी पाद्य-अर्ध्य आदिसे
अर्चन करना चाहिये । “द्ुप्दादिब०' (यजुः २०।२०) इस
मन्त्रसे पहले प्रतिपाकौ खान कराये । स्त्रानके अनन्तर
मन्द्राय गन्धे, फूल, फल, दूर्वा, सिंदूर, चन्दन, सुगन्धित
कैल, पुष्प, धूप, दीप, अक्षत, वस आदि उपचारत पूजन
क्रे । मण्डपके अंदर प्रधान देवताका आवाहन करे और
उसी अधिवासन करे । सुरक्षा-कर्मियोंद्रार उस स्थानक