२१६
* पुराणे परम॑ पुश्य भविष्य॑ सर्वसौस्यदम् «
( संक्षिप्त भविष्यपुराणाङ्क
अशदशभुजाका पूजन करना चाहिये। आषाढ़ और श्रावण
मासके शुक्र पक्षकी अष्टमीमें चण्डिकादेवीका प्रातःकाल सान
करके अत्यन्त भक्तिपूर्वक पूजन कर रात्रिमें अभिषेक करना
चाहिये। चैत्र मासके शुङ्ग पक्षकी अष्टमीमें अशोक-पुष्पसे
मृण्मयी भगवती देवीका अर्चन करनेसे सम्पूर्ण शोक निवृत्त हो
जाते हैं। श्रावण मासमें अथवा सिंह-संक्रान्तिमें गरेहिणीयुक्त
अष्टमी हो तो उसकी अत्यत्त प्रशंसा की गयी है। प्रतिमासकी
नेवपीमे देवीकी पृजा करनी चाहिये। कार्तिक मासके शू
पक्षकी दशमीको शुद्ध आहारपूर्वक रहनेवाले ब्रह्मस्प्रेकमें जाते
हैं। ज्येष्ठ मासके शुक्र पक्षकी ददाम गङ्गादराहरा कत्त
है। आश्विनको दशमी विजया और कार्तिककी दहामी
महापुण्या कहत्मती है।
एकादशी-ब्रत करनेसे सम्पूर्ण पाप नष्ट हो जाते हैं। इस
तरतमे दशामीको जितेन्द्रिय होकर एक ही बार भोजन करना
चाहिये । दूसरे दिन एकादशम उपयास कर द्वादशौमें पारणा
करनी चाहिये । द्वादशी तिथि ड्रादश पार्पोकम हरण करती है।
चैत्र मासके शुक्र पक्षकी त्रयोदशीमें अनेक पुष्पादि सामग्रियोंसे
कामदेवकम पूजा करे । इसे अनङ्ग -त्रयोददी कहा जाता है।
चैत्र मासके कृष्ण पक्षकी अष्टमी इनियार या शतभिषा
नक्षत्रसे युक्त हो तो गङ्गामे स्नान करनेसे सैकड़ों सूर्यग्रहणका
फल आप्त होता है। इसी मासके कृष्ण पक्षकी त्रयोदशी यदि
शनियार या शतभिषासे युक्त हो तो वह महावारुणी-पर्य
कहलाता है। इसमें किया गया खान, दान एवं श्राद्ध अक्षय
होता है। चैत्र पासके शुक्ल पक्षकी चतुर्दज्ञी दम्भभंजिनी कही
जाती है। इस दिन घतूरेकी जड़में कमदेवका अर्चन करना
चाहिये, इससे उत्तम स्थान प्राप्त होता है। अनन्त-चतुर्दशीका
रत सम्पूर्ण पापॉका नाझ करनेवाला है। इसे भक्तिपूर्वक
करनेसे मनुष्य अनन्त सुख प्राप्त करता है। प्रेत-चतुर्दशी
(यम-चत्तुर्दशी) क्यो तपस्वी आह्मणोंक्रो भोजन और दान देनेसे
मनुष्य यमत्त्रेकमें नहीं ऋता । फाल्गुन मासके कृष्ण पक्षकी
चतुर्दशी दिवर्रिके नामसे प्रसिद्ध है और वह सम्पूर्ण
अभिलाषाओंकी पूर्ति करनेबाल्ली है। इस दिन चाय पहरोंमे
साने करके भक्तिपूर्वक शिवजीकी आगाधना करनी चाहिये।
चैत्र मासकी पूर्णिमा चित्रा नक्षत्र तथा गुरुवारसे युक्त हो तो वह
महाचैत्री कही जाती है। वह अनन्त पुण्य प्रदान करनेवाली है ।
इसी प्रकार विञ्ञाखादि नक्षत्रसे युक्त बैज्ञाखी, मह्यज्यष्ठौ आदि
बारह पूर्णिमा होती है । इनमें किये गये सान, दान, जप,
नियम आदि सत्कर्म अक्षय होते हैं और ब्रतीके पितर् संतृप्
होकर अक्षय विष्णुलोकको प्राप्त करते हैं। हरिद्वारमें
महावैज्ञाखीका पर्व विशेष पुण्य प्रदान करता है। इसी प्रकार
झालग्राम-क्षेत्रमें महाचैत्री, पुस्षोत्तम-क्षेत्रमें महाज्येही,
शुझ्कल-क्षेत्रमें महाषाढ़ी, केदारमें महाश्रावणी, बदरिकाश्षेत्रमें
महाभाद्री, पुष्कर तथा कान्यकुन्नमे महमकार्तिकी, अयोध्यामें
महामार्गशीर्षों तथा महापौषी, प्रयागमें महामाघी तथा
नैमिषारण्यमे महाफत्रल्गुनी पूर्णिमा विशेष फल देनेवाली है।
इन पवॉमें जो भी शुभाशुभ कर्म किये जाते है, वे अक्षय हो
जाते हैं। आश्विनकी पूर्णिमा कौमुदी कही गयी है, इसमें
चन्द्रोदय -कयलतये विधिपूर्वक लक्ष्मीक पूजा करनी चाहिये।
प्रत्येक अमावास्याको तर्पण और श्राद्धकर्म अवश्य करना
चाहिये। कार्तिक मासके कृष्ण पक्षकी अमावास्थामें प्रदोषके
समय लक्ष्यीका सविधि पूजन कर उनकी प्रीतिके स्म्य
दीपोंको प्रज्वत्म्ति करना चाहिये एवं नदीतीर, पर्यत, गोष्ठ,
स्मान, वृक्षमूल, चौराहा, अपने घरमें और चत्वरमें दीपोको
सजाना चाहिये। (अध्याय ७-८)
---- -
गोत्र-प्रवर आदिके ज्ञानकी आवश्यकता
सूतजी कहते है-- ब्राह्मणो ! गोत्र-प्रवरकी परम्पराको
जानना अत्यन्त आवङ्यक होता है, इसलिये अपने-अपने गोत्र
या प्रवरको पिता, आचार्य तथा रशाखद्रारा जानना चाहिये ।
गोत्र-प्रवरको जाने विना किया गवा कर्म विपरीत कलदायी
होता है । कङ्यप, वसिष्ट, विश्वामित्र, अद्गिरस, च्यवन,
पौकुन्य, यत्स, कात्यायन, अगस्त्य आदि अनेक गोत्रप्रवर्तक
ऋषि हैं। गोत्रोमिं एक, दो, तीन, पाँच आदि प्रवर होते रै ।
समान गोत्रमें विवाह्मदि सम्बर्धोका निषेध है। अपने
गोत्र-प्रवरादिका ज्ञान शास्तात्तरोंसे कर लेना चाहिये ।"
वास्तवपे देखा जाय तो सारा जगत् महामुनि कक््यपसे
१-गोतर-प्रवर -नर्णयपर "गोत्र-प्रवर-नियन्ध-कटम्ब' आदि कद स्वतन्ब निब प्न्य है । मत्थपुराणके अध्याय १९५-२०५ लकमे विस्तारसे यह
विषय उदया है. तथा स्कन्दपुदाणके माहेश्वर. च्छ एवं ब्रह्मणण्डमें भी इसपर विचार किया गया है ।