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» पुराण परप पुण्यं भविष्यं सर्वसौख्यदम् +
{ संक्षिप्त भविष्यपुराणाडु
चतुर्विध मास-व्यवस्था एवं मलमास-वर्णन
सूतजी बोकते~ ब्राह्मणो ! अब मै (विभिन्न प्रकारके)
मासका वर्णन करता हूँ। मास चार प्रकारके होते है-- चादर.
सौर, सावन तथा नाक्षत्र । गु प्रतिपदासे लेकर अमावास्या-
तकका मास चान्द्र-मास कहा जाता है । सूर्यकी एक संक्रान्तिसे
दुसरौ संक्रान्तिमें प्रवेश करनेका समय सौर-मास कहलाता है।
पूरे तीस दिनॉका सावन-मास होता है। अशधिनीसे लेकर
रेवतौपर्यन्त नाक्षत्र-पास होता है । सूर्योदयसे दूसरे सूर्योदयत्क
जो दिन होता है, उसे सावन-दिन कहते हैं। एक तिधिे
चन्द्रमा जितना भोग करता है, वह चान्द्र-दिवस कहलाता है।
राश्षिके तौसवें भागकों सौर-दिन कहते हैं। दिन-रातकों
मिलाकर अहोगात्र होता है। किसी भी लिथिको छेक तीस दिन
बाद आनेवाली तिथितकका समय सावन-मास होता है।
प्रायतत, अन्नप्राशन तथा मन्रोपासनामें, राजाके कर-पग्रहणमें,
व्यवहारमें, यज्ञमें तथा दिनकी गणना आदिप सावन-मास
ग्राह्म है। सौर-मास विवाहादि-संस्कार, यज्ञ-व्रत आदि सत्कर्म
तथा ख्रानादियें ग्राह्म है। चान्द्र-मास पार्वण, अष्टकाश्राद,
साधारण श्राद्ध, धार्मिक कार्यों आदिके लिये उपयुक्त है । चैत्र
आदि मासॉमें तिधिको लेकर जो कर्म विहित हैं, वे चाद्र-
माससे करने चाहिये। सोम या पितृगणोंके कार्य आदियें
नाक्षत्र-सास प्रास्त माना गया है। चित्रा नक्षत्रके योगसे चैत्रो
पूर्णिमा होती है, उससे उपलक्षित मास चैत्र का जाता है । चैत्र
आदि जो वारह चान्द्र-मास हैं, वे तत्-तत् नक्षत्रके योगसे
तत्-तत् नापवाले होते है ।
जिस महीनेमें पूर्णिमाका योग न हो, वह प्रजा, पशु
आदिके स्यि अहितकर होता है । सूर्य और चन्द्रमा दोनों नित्य
तिधिका भोग करते हैं। जिन तीस दिनोंमें संक्रमण न हो, यह
मलिम्लुच, मलमास या अधिक मास (पुरुषोत्तम मास)
कत्ता है, उसमें सूर्यकी कोई संक्रान्ति नहीं होती । प्रायः
अढ़ाई वर्ष (बत्तीस पास) के बाट् यह मास आता है। इस
महीनेमें सभी तरहकी प्रेत-क्रियाएँ तथा सपिण्डन-क्रियाएँ की
जा सकती हैं। परंतु यज्ञ, विवाहादि कार्य नहीं होते। इसमें
तौर्थस्त्रान, देव-दर्शन, व्रत-उपवास आदि, सीमन्तोन्नयन,
ऋतुशान्ि, पसवन और पुत्र आदिकः मुख-दर्शन किया जा
सकता है । इसी तरह शुक्रास्तमें भी ये क्रियाएँ की जा सकती
हैं। यज्याभिषेक भी मलमासे हो सकता है। व्रतारम्भ,
नूतन-गृह-निर्माण, गृह-प्रवेश, गौ आदिका ग्रहण,
आश्रपात्तरमें प्रवेश, तीर्थ-यात्रा, अभिषेक-कर्म, वृषोत्सर्ग,
कन्यका द्विरागमन तथा यज्ञ-यागादि--इन सबका मल्मासमें
निषेध है। इसी तरह शस्त एव उसके वार्धक्य और
बाल्यत्वमे भी इनका निषेध है । गुरुके अस्त एवं सूर्यके सिंह
राज्िमें स्थित होनेपर अधिक मासमे जो निषिद्धे कर्म हैं, उने
नहीं करना चाहिये। कर्क राशिमें सूर्यके आनेपर भगवान्
डायन करते हैं और उनके तुलाराझिमें आनेपर निद्राका त्याग
करते हैं। (अध्याय ६)
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काल-विभाग, तिथि-निर्णय एवं वर्षभरके विशेष
पवो तथा तिथियोंके पुण्यप्रद
सूतजी बोले--ब्राह्मणो ! देव-कर्म या पैतृक-कर्म
कालके आधारपर ही सम्पन्न होते हैं और कर्म भी नियत
समयपर किये जानेपर पूर्णरूपेण फलप्रद होते है । समयके बिना
की गयी क्रियाऑका फल तीनों कालों तथा लोकोमें भी प्राप्त
नहीं होता । अतः मैं कालके विभागोंका वर्णन करता हूँ ।
यद्यपि काल अमूर्तरूपपे एक तथा भगवानका ही
अन्यतम स्वरूप है तथापि उपाधियोंके भेदसे वह दीर्घ, लघु
आदि अनेक रूपॉमें विभक्त है । तिथि, नक्षत्र, वार तथा रात्रिका
सम्बन्ध आदि जो कुछ है, वे सभी कालके ही अङ्ग है और पक्ष,
मास आदि स ममार भी आते-जाते रहते हैं तथा वे ही
सब कमेक साधन है । समयके बिना कोई भी स्वतन्तररूपसे कर्म
करजलेमें समर्थ नही । धर्म या अधर्मका मुख्य द्वार काल ही है ।
तिथि आदि कल-विशेषोमिं निषिद्ध और विहित कर्म बताये गये
हैं। विदित कर्मोंका पालन करनेवाला स्वर्ग प्राप्त करता है और
विहितका त्यागकर निषिद्ध कर्म करनेसे अधोगति प्राप्त करता
है। पूर्वाह्नव्यापिनी तिधिमें वैदिक क्रियाएँ करनी चाहिये।
एकोदिष्ट श्राद्ध मध्याद्वव्यापिनी तिथि और पार्वण-श्राद्ध
अपराह्न-व्यापिनी तिथिमें करना चाहिये। वृद्धिश्राद्ध आदि