ॐ श्रीपरमात्मने नपः
मध्यमपर्वं
(द्वितीय भाग)
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यज्ञादि कमेकि मण्डल-निर्माणका विधान तथा क्रौञ्चादि पक्षियोंके दर्शका फल
सूतजीने कहा -- ऋद्यणगण ! अब मैं आपलोगॉसे
पुराणोंमें वर्णित मण्डल-निर्माणके विषयमे कहूँगा। बुद्धिमान्
व्यक्ति हाथसे नापकर मण्डलकः माप निश्चित करे । फिर उसे
तत्त् स्थानोमें विधि-विहित छाल आदि पग भरे। उनमें
प्रदर्शित करें। शाम्भु, गौरी, ब्रह्म, राम और कृष्ण आदिका
अनुक्रमसे निर्देश करें। फिर सीमा-रेखाको एक अङ्गुल ऊँचा
उन-उन अर्ध-भागोंसे युक्त करें। शिव और विष्णुके
महायागमें शम्भुसे प्रारम्भ कर देवताओंकी परिकल्पना--
ध्यान करे । प्रतिष्ठामें रामपर्यनत, जल्मनश्नयमें कृष्णपर्यन्ते और
दुर्गायागर्में ऋह्मादिकी परिकल्पना करें। मण्डलको निर्माण
अधम ब्राह्मण एवं दद्र न करे। सूतजीने पुनः कहा--अब मैं
कऋ्रौज्धका स्वरूप बतलाता हूँ। सभी शास्त्रोंमें उसका उल्लेख
घिलता है जो गोपनोय है। यह क्रौञ्च (पक्षी-विदोष) -
मक्र, मध्य-क्रैश्ध और कनिष्ट-करौशच-भेदसे तोन प्रकारका
वर्णित दै । इसका दर्शन सैकड़ों जन्मोमें किये गये फापौको नष्ट
करता है। मयुर, वृषभ, सिंह, करै ओर कपिको घरमे, खेतमें
और वृक्षपर भूलसे भी देख ले तो उसको नमस्कार करे, ऐसा
करनेसे दर्शकके सैकड़ों ब्रह्महत्याजनित पाप नष्ट हो जाते हैं।
उनके पोषणसे कीर्ति मिलती है और दर्शबसे घन तथा आयु
बढ़ती है। मयूर क्रह्माका, वृषभ सदाशिवका, सिंह दुर्गाका,
रौ नारायणका, बाध त्रिपुरसुन्दरी-लक्ष्मीका रूप है।
ख्नानकर यदि प्रतिदिन इनका दर्शन किया जाय तो ग्रहदोष मिट
जाता है। इसलिये प्रयत्नपर्वक इनका पोषण करना चाहिये।
सभी यज्ञोंमें सर्वतोभद्रमण्टल सभी प्रकारकी पुष्टि प्रदान करता
है। सर्वदाक्तिमान् ईश्वरने साधकोंके हितके लिये उसका प्रकाश
किया है। सम्पूर्ण स्मार्त-यागोंमें सर्वतोभद्रमण्ललका विशेष
रूपसे निर्माण किया जाता है और तत्-तत् स्थानम तत्-तत्
रेगोंसे पूसित किया जाता है।
(अध्याय १-२)
व *। आम
यज्ञादि कर्ममें दक्षिणाका माहात्प्य, विभिन्न कर्मोर्मे पारिश्रमिक
व्यवस्था और कलश-स्थापनका वर्णन
सूतजी बोले --- त्राह्मणो ! झाख्रविहित यज्ञादि कार्य
दक्षिणारहित एवं परिमाणविहीन कभी नहीं करना चाहिये ।
ऐसा यज्ञ कभी सफलं नहीं होता। जिस यज्ञका जो पाप
बतलाया गया है, उसीके अनुसार विधान करना चाहिये।
मानरहित यज्ञ करनेवाले व्यक्ति नरके जाते हैं। आचार्य,
छोता, ब्रह्मा तथा जितने भौ सहयोगौ हों, वे सभो विधिज्ञ हो ।
अस्सी वगरौ (कौड़ियों) का एक पण ह्येता है । सोलह
प्णोका एक पुराण कहा जाता है, सात पुणणोंकी एक रजतमुद्रा
तथा आठ रजतमुद्राओंकी एक स्वर्णमुद्रा कही जाती है, जो
यज्ञ आदिमे दक्षिणा दी जातौ है ¦ बड़े उद्यानोंको प्रतिष्ठा-यज्ञमें
दो सवमु, कृपोस्सर्गमें आधी स्वर्णमुद्रा (निष्क), तुलसी
एवं आमलकी-यागमें एक स्वर्णमुद्रा (निष्क) दक्षिणा- रूपमे
विहित है। लक्ष-होममें चार स्वर्ण-मुद्रा, कोटि-होम,
देव-प्रतिष्ठा तथा प्रासांदके उत्सर्गमें अठारह स्वर्ण-मुद्राएँ
दक्षिणारूपमें देनेका विधान है । तद्ग तथा पुष्करिणी-यागमें
आधी-आधी स्वर्णमुद्रा देनी चाहिये। महादान, दीक्षा, युषोत्सर्ग
तथा गया-श्रद्धमे अपने विधवके अनुसार दक्षिणा देनी
चाहिये ¦ महाभारतके श्रवणमें अस्सी रत्तौ तथा ग्रहयाग,
प्रतिष्ठाकर्म, लक्षहोम, अयुत-होम तथा कोटिहोममें सौ-सौ
सती सुवर्णं देना चाहिये। इसी प्रकार आस्त्रोंमें निर्दिष्ट सपाप
व्यक्तिको ही दान देना चाहिये, अपात्रको नहीं। यज्ञ, होममें
द्रस्य, कष्ट, घृत आदिके छिये शाख्र-निर्दीट विधिका हो
अनुसरण करना चाहिये। यज्ञ, दान तथा ब्तादि कर्मोमें
दक्षिणा (तत्काल) देनी चहिये ¦ बिना दक्षिणाके ये कार्य नहीं
करने चाहिये । ब्राह्मणॉंका जब वरण किया जाय तब उन्हें रल,
सुवर्ण, चांदी आदि दक्षिणारूपमें देना चाहिये। वस्त्र एवं