* पुराणौ परमं पुण्य॑ भविष्य सर्वसौख्यदम् +
[ संक्षिप्त भविष्यपुराणाङ्क
निर्माण कर संस्कार-कार्यके लिये गणेशञादि-देवपूजन तथा
हवनादि कार्य करने चाहिये। तदनन्तर उनमें वापी, पुष्करिणी
(नदी) आदिका पत्रित्र जल तथा गङ्गाजलः डालना चाहिये।
एकसठ हाथका प्रासाद उत्तम तथा इससे आधे
प्रमाणका मध्यप और इसके आधे प्रमाणसे निर्मित प्रासादं
कनिष्ठ माना जाता है। ऐश्वर्यकी इच्छा करनेवालेकों
देवताओंकी प्रतिमाके मानसे प्रासादका निर्माण करना चाहिये।
नूतन तड़ागका निर्माण करनेवाला अथवा जीर्ण तड़ागका
नवीन रूपमे निर्माण करनेवाला व्यक्ति अपने सम्पूर्ण कुलका
उद्धार कर स्वर्ल्मेकमे प्रतिष्ठित होता है। वापी, कुष, तालाब,
बगीचा तथा जलके निर्गम-स्थानको जो व्यक्ति बार-बार स्वच्छ
या संस्कत करता है, वह मुक्तिरूप उत्तम फल प्राप्त करता है।
जहाँ विप्रों एबं देवता ओका निवास हो, उनके पध्यवतीं स्थाने
चापी, तात्परब आदिका निर्माण मान्वोको करना चाहिये।
नदौके तटपर और इमशानके समीप उनका निर्माण न करे । जो
मनुष्य वापी, मन्दिर आदिकी प्रतिष्ठा नहीं करता, उसे
अनिष्टका भय होता है तथा वह पापका भागी भी होता है।
अतः जनसंकुल गकि समीप बढ़े तालाब, मन्दिर, कृष
आदिका निर्माण कर उनकी प्रतिष्ठा शास्रविधिसे करनों
याहिये। उनके शास्त्रीय विधिसे प्रतिष्टित होनेपर उत्तम फल
प्राप्त होते हैं। अतएव प्रयत्रपूर्वक मनुष्य न्यायोपार्जित धनसे
शुभ मुहूर्तमें शक्तिके अनुसार श्रद्धापूर्वक प्रतिष्ठा करे ।
भगवान्के कनिष्ठ, मध्यम या श्रेष्ठ मन्दिरको बनानिवात्पर व्यक्ति
खिष्णुल्प्रेकको प्राप्त होता है और क्रमिक मुक्तिको प्राप्त करता
है। जो व्यक्ति गिरे हुए या गिर रहे अर्थात् जीर्णं मन्दिस्का
रक्षण करता है, वह समस्त पुण्योंका फल प्राप्त करता है। जो
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प्रासाद, उद्यान आदिके निर्माणमें भूमि-
सूतजी बोले ब्राह्मणो ! देवमन्दिर, तडाग आदिके
निर्माण करनेमें सबसे पहले प्रमाणानुसार गृहीत की गयी
भूमिका संज्ञोधन कर दस हाथ अथवा पाँच हाथके प्रमाणे
बैलेंस उसे जुतवाना चाहिये। देवमन्दिरके लिये गृहीत
भुमिको सफेद बैल्म्रेंसे तथा कूप, बगीचे आदिके लिये काले
बैल्मरेंसे जुतवाये । यदि वह भूमि ग्रह-यागके लिये हो तो उसे
जुतवानेकी आवश्यकता नहीं, मात्र उसे स्वच्छ कर लेना
व्यक्ति विष्णु, शिव, सूर्य, ब्रह्मा, दुर्गा तथा लक्ष्मीनारायण
आदिके मन्दिरौका निर्माण कराता है, वह अपने कुकर उद्धार
कर कोटि कल्यतक स्वर्गलोके निवास करता है । उसके बाद
वहाँसे मृत्युखोकमें आकर राजा या पृज्यत॒म धनी होता है । जो
भगवती त्रिपुरसुन्दरीके मन्दिर्में अनेक देवताओं स्थापना
करता है, यह सम्पूर्ण विशवे स्मरणीय हो जाता है और
स्वर्गलोके सदा पूजित होता है। जलकी महिमा अपर्पार
है। परोपकार या देव-कार्यमें एक दिन भी किया गया जलका
उपयोग मातृकुछ, पितुकुल, भार्याकुल तथा आचार्यकुलूकी
अनेक पीढ़ियॉको तार देता है। उसकया स्वर्यका भी उद्धार हो
जाता है। अविमुक्त दक्षार्णव तीर्धमे देवार्चन करनेसे अपना
उद्धार होता है तथा अपने पितृ-मातृ आदि कुल्मेंको भी वह तार
देता है। जलके ऊपर तथा प्रासाद (देवाय) के ऊपर रहनेके
लिये घर नहीं बनवाना चाहिये। प्रतिष्ठित अथवा अप्रतिष्ठित
रिवलिङ्गको कभी उखाड़ना नहीं चाहिये। इसी प्रकार अन्य
देव-प्रतिमाओं और पूजित देववृक्षोंको चाल्तति नहीं करना
चाहिये। उसे चालित करनेवाले व्यक्तिको रौरव नस्ककी प्राप्ति
होती है, परेतु यदि नगर या आप उजड़ गये हों, अपना स्थान
किसी कारण छोड़ना पड़े या विष्व मचा हो तो उसकी पुनः
प्रतिष्ठा चिना विचारके करनी चाहिये।
शुभ मुहूर्ते अभावे देवमन्दिर तथा देववृक्ष आदि
स्थापित नहीं करने चाहिये । बादमें उन्हें हटानेपर ब्रह्महत्याका
दोष लगता है । देवताओंके मन्दिरके सामने पुष्करिणी आदि
बनाने चाहिये। पुष्करिणो बनानेवाला अनन्त फल प्राप्तकर
ब्रह्मस्थेकसे पुनः नीये नहीं आता।
(अध्याय ९)
तथा वृक्षारोपणकी महिमा
चाहिये। उस पूर्वोक्त स्थानको तीन दिन जुक्काना चाहिये । फिर
उसमे पाँच प्रकारके धान्य बने चाहिये । देवपक्षयें तथा
उद्यानके लिये सात प्रकारक धान्य वपन करने चाहिये । मग,
डड़द, धान, तिल, साँवा--ये पाँच व्रीहिगण है । ससुर और
मटर या चना पिलानेसे सात ब्रीहिगण होते हैं । ( यदि ये चोज
लीन, पाँच या सात रातोमि अङ्कुरित हो जाते हैं तो उनके फल
इस प्रकार जानने चाहिये--तीन शतवाल्ली भूमि उत्तम, पाँच