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» पुराणौ परम॑ पुण्यं भविष्य सर्वसोस्यदप् «
[ संक्षिप्र भविष्यपुराणाडु
वहि परिव्याप्त है, वहीं पार्वतीके साथ भगवान् दिव विराजमान
रहते हैं। सैकड़ों-हजारों विद्रान् और मनीषियोंद्राण वे
चिन्त्यमान होकर प्रतिष्ठित रहते हैं। वहाँ नियत ब्रह्मवादी
द्विजगण ही जाते हैं। महादेवमें सतत ध्यानरत, तापस,
कऋह्मयादी, अहंता-ममताके अध्याससे रहित, काम-क्रोधसे
शुन्य, ब्रह्मत्व-समन्वित ऋद्यण हौ उनको देख सकते
रै-- वही रु्रतत्ेक दै । ये सरातों महालोक कहे गये रै ।
द्विजगणो ! पृथ्वीके नीये महातल आदि पातलोक है
महातल नापक पाताल खर्णमय तथा सभी वणस असकृत
है। कह विविध प्रासादौ ओर शुभ देवालयोंसे समन्वित दै ।
कापर भगवान्. अनन्त, वुद्धिमान् मुचुकुन्द तथा बलि भी
निवास करते हैं। भगवान् शंकरसे सुशोभित रसातल दौलमय
है। सुतल पीतवर्ण और वितल मूँगेकी कान्तिवात्य है । वितल
शेत और तल कुष्णयर्ण है । यहं वासुकिं रहते है । कालनेमि,
वैनतेय, नमुचि, झड्डूकर्ण तथा विविध नाग भी यहाँ निवास
करते है । इनके नीचे रौरव आदि अनेकों नरक हैं, उनमें
फपियोको गियया जाता है। पातात्रके नीचै दोष नामक
वैष्णवी शरीर है । वहाँ कार्प्रप्रि रुद्रस्वरूप नरसिंह भगवान्
लक्ष्मीपति भगवान् विष्णु नागरूपौ अनन्तके नामसे प्रसिद्ध
है । (अध्याय २-३)
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भूगोल एवं ज्योतिश्चक्रका वर्णन
श्रीसूतजी खोले--मुनियों ! अब मैं भूल्लेंकका वर्णन
करता हूँ। भूलोकमें जम्बू, प्रक्ष, शाल्मलि, कुश, क्रौ्ध, शाक
और पुष्कर नामके सात महाद्वीप हैं, जो सात समुद्रोंसे आवृत
हैं। एक द्रीपसे दूसरे द्रप क्रम-क्रमसे ठीक दूने-दूने आकार
एवं विस्तारवाले हैं और एक सागरसे दूसरे सागर भी दूने
आकारके हैं। क्षीरोद, इक्षुर्सोद, क्षारोद, घृतोद, देध्योद,
क्षीरसलिलल तथा जल्मेद--ये सात महासागर हैं। यह पृथ्वी
पचास करोड़ योजन विस्तृत,समुद्रसे चारों ओरसे घिरी हुई तथा
सात ट्रीपॉंसे सणन्वित है। जम्बुद्रीप सभी द्रीपोंके मध्ये
सुशोभित हो रहा है। उसके मध्यमें सोनेकी करन्तिवातपर
महापेरु पर्वत है। इसकी ऊँचाई चौरासी हजार योजन है । यह
महये पर्वत नीचेकी ओर सोलह हजार योजन पृथ्वीमें प्रविष्ट
है और ऊपरी भागमें इसका विस्तार बत्तीस हजार योजन है।
नीचे (तली) में इसका विस्तार सोलह हजार योजन है। इस
प्रकार यह पर्वत पृथ्वीरूप कमलकी कर्णिका (कोष)के
समान है। इस मेरु पर्वतके दक्षिणे हिमवान्, हिसकूट और
निषध नामके पर्वत हैं। उत्तरमें नील, चेत तथा गी नामके
वर्ष-पर्वत हैं। मध्यमे लक्षयोजन प्रमाणवाले दो (निषध और
नील) पर्वत हैं। उनसे दूसरे-दूसरे दस-दस हजार योजन कम
हैं। (अर्थात् हेमकूट और श्वेत नब्बे हजार योजन तथा
हिमवान् और शृंगी अस्सी-अस्सी हजार योजनतक फैले हुए
है।) वे सभी दो-दो हजार योजन र्ये और इतने ही चौड़े हैं।
द्विजे ! ! मेरुके दक्षिण भागमें भारतवर्ष है, अनन्तर
किंपुरुषयर्ष और हरिवर्ष ये मेर पर्वतके दक्षिणमें हैं। उत्तरमें
चम्पक, अश्च, हिरण्मय तथा उत्तरकुरुवर्ष हैं। ये सब
भारतवर्षके समान हो हैं। इनमेंसे प्रत्येकका विस्तार नौ सहस््र
योजन है, इनके मध्यमे इलावृतवर्ष है और उसके मध्यमे उन्नत
मेरु स्थित है। मेस्के चारों ओर नौ सहस्र योजन विस्तृत
इत्म्यूतवर्ष है। महाभाग ! इसके चारों ओर चार पर्वत हैं। ये
चारों पर्वत मेरुकी कीलं हैं, जो दस सहस्न योजन परिमाणमें
ऊँची हैं। इनमेंसे पूर्वम मन्दर, दक्षिणमें गन्धमादन, पश्चिमे
विपुलः और उत्तरम सुपार है। इनपर कदैव, जम्बू, पीपल
और वट -वृक्ष है । महर्षिगण ! जम्यूद्वीप नाम होनेका कारण
महाजप्बू युक्त भी यहाँ है, उसके फल महान् गजराजके समान
बड़े होते है । जब ये पर्वतपर गिरते हैं तो फटकर सब ओर
फैल जाते हैं। उसीके रससे जम्बू नामकी प्रसिद्ध नदी वहाँ
बहती है, जिसका जल वक रहनेवाले पीते हैं। उस नदीके
जलका पान करनेसे वहाँके निवासियोको पसीना, दुर्गन्ध,
बुढ़ापा और इच्द्रिय-क्षय नहीं होता। वहाँके निवासी शुद्ध
हृदयवाले होते हैं। उस नदीके किनारेकी मिट्टी उस रससे
मिलकर मन्द-मन्द वायुके द्वारा सुखाये जानेपर 'जाम्बूनद'
नामक सुवर्ण बन जाती है, जो सिद्ध पुरुषोंका भूषण है।
मेस्के पास (पूर्वमें) भद्राश्ववर्षं और पश्चिमे
केलुपालवर्ष है। इन दो वर्षोकि मध्यमे इत्मबृतवर्ष है।
विप्रश्नेष्ट येरुके ऊपर ब्रह्माका उत्तम स्थान है। उसके ऊपर
इन्द्रका स्थान टै ओर उसके ऊपर झोकरका स्थान है! उसके