जयति सकलमौलि्भानुमांश्षित्रभानु: ॥
'संसासकी सृष्टि करनेवाले भुवनके दीपस्थरूप भगवान्
भास्करकी जय हो। इयाम दरीरवाले शार्डधनुर्धारी भगवान्
मुरारि जय हो । मस्तकपर चन्द्रमा घारण किये हुए भगवान्
रुद्रकी जय हो । सभीके मुकुटमणि तेजोमय भगवान् चित्रभानु
(सूर्य) को जय हो ।'
एक बार पौराणिकोमें श्रेष्ठ गेमहर्पण सूतजीसे मुनियोनि
प्रणामपूर्वक पुराण-संहिताके विषयमे पूछा । सृतजी मुनियोके
वचने सुनकर अपने गुरु सत्यवती -पुत्र महर्षि वेदव्यासको
प्रणामकर कहने लगे। मुनियो ! मैं जगत्के कारण ब्रह्म-
स्वरूपको धारण करनेवाले भगवान् हरिको प्रणापकर पापका
सर्वधा नादा करनेवाली पुराणकी दिव्य कथा कहता हुँ, जिसके
सुननेसे सभी पापकर्म नष्ट हो जाते हैं और परमगति प्राप्त होती
है। द्विजगण ! भगवान् विष्णुके द्वारा कहा गया भविष्यपुराण
अत्यन्त पवित्र एवं आयुष्यप्रद है । अब मैं उसके मध्यम-
पर्वका वर्णन करता हूँ, जिसमें देव-प्रतिष्ठा आदि इश्टापूर्त-
कर्मोंका वर्णन है। उसे आप सुनें--
इस मध्यमपर्वमें धर्म तथा ब्राह्मणादिकी प्रशंसा,
आपड्र्मका निरूपण, विद्या-माहात्यय, प्रतिमा-निर्माण,
प्रतिमा-स्थापना, प्रतिमाका लक्षण, काल-यव्यवस्था, सर्ग-
प्रतिसर्ग आदि पुराणका लक्षण, भूगोलका निर्णय, तिथियोका
निरूपण, श्राद्ध, संकल्प, मन्वन्तर, मु, मरणासन्नके कर्म,
दानका माहात्म्य, भूत, भविष्य, युग -धर्मानुशासन, उद्य-नीच-
निर्णय, प्रायश्चित्त आदि क्षियोंका भी समावेश है।
मुनियो ! तीनों आश्रमोंका मूल एवं उत्पत्तिका स्थान
गृहस्थाश्रम हो है। अन्य आश्रम इसीसे जीवित रहते हैं, अतः
गृहस्थाश्रम सबसे श्रेष्ठ है ¦ गार्हस्थ्य-जीवन हौ धर्मानुशासित
जीवन है धर्मरहित होनेपर अर्थ और काम उसका परित्याग कर
देते है । धर्मसे ही अर्थ और क्रम उत्पन्न होते हैं, मोक्ष भी धर्मसे
ही प्राप्त होता है, अत: धर्मका ही आश्रयण करना चाहिये । धर्म,
अर्थ और काम यही त्रिवर्ग हैं। प्रकारान्तरे ये क्रमशः त्रिगुण
अर्थात् सत्त्व, रज और तमोगुणात्मक हैं। सात्विक अथवा
धार्मिक व्यक्ति ही सच्ची उन्नति करते हैं, राजस मध्य स्थानके
प्राप्त करते हैं। जधन्यगुण अर्थात् तामस व्यवहारवाले निम्न
भूमिको प्राप्त करते हैं। जिस पुरुषमें धर्मसे समन्वित अर्थ और
काम व्यवस्थित रहते हैं, वे इस लोकमें सुख भोगकर मरनेके
अनन्तर मोश्वको प्राप्त करते हैं, इसलिये अर्थ और कामको
सम्न्वित कर धर्मक आश्रय ग्रहण करे । ब्रह्मब्ांदियोंने कहा
है कि धर्मसे ही सब कुछ प्राप्त हो जाता है । स्थावर-जङ्गम
अर्थात् सम्पूर्ण चराचर विश्वको धर्म ही धारण करता है। धर्मे
घारण करलेकी जो दाक्ति है, वह ब्राह्मो शक्ति है, वह
आद्यन्तरहित है। कर्म और ज्ञानसे धर्म प्राप्त होता है--इसमें
संदाय नहों। अतः ज्ञानपूर्वक कर्मयोगका आचरण करना
चाहिये । प्रवृत्तियृल्क और निवुततिपृलकके भेदसे वैदिक कर्म
दो प्रकारके हैं। ज्ञानपूर्वक त्याग संन्यास है, सेन्यासिरयो एवं
योगियोंके कर्म निवृत्तिपरक हैं और गृहस्थोंके वेद-दास््ानुकूलः
कर्म प्रयृतिपरक हैं। अतः प्रवृत्तिक सिद्ध हो जानेपर
मोक्षकामीको निवृत्तिका आश्रय सेना चाहिये, नहीं तो
पुनः-पुनः संसारमें आना पड़ता है । दम, दम, दया, दान,
अल्लोप, विषयोंका त्याग, सरलता या निशछलता , निष्क्रोध,
अनसूया, तीर्थयात्रा, सत्य, संतोष, आस्तिकता, श्रद्धा,
इन्द्रियनिग्रह, देवपूजन, विशेषरूपसे ब्राह्मणपूजा, अहिंसा,
आणियॉपर दया--ये श्रेष्ठ आचरण सभी वर्णोकि लिये सामान्य
रूपसे कहे गये हैं। श्रद्धापूलक कर्म ही धर्म कहे गये हैं, धर्म
श्रद्धाभावमें ही स्थित है, श्रद्धा ही निष्ठा है, श्रद्धा ही प्रतिष्ठा
है और श्रद्धा ही धर्मकी जड़ है। विधिपूर्वक गृहस्यधर्मका