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प्रथम पारणामें वाचककी अपनों दक्तिके अनुसार पूजा
करनेपर अम्निप्टोम-यज्ञका फल प्राप्त होता है। कार्तिकसे
आरम्भकर आश्विनतक प्रत्येक मासमें एक-एक पारणापर पूजन
करनेसे क्रमतः अग्रिष्टेप, गोसव ज्योतिष्टोप, सौत्नामणि,
तथा अश्वमेध यज्ञोका फल प्राप्त होता है। इस प्रकार
यज्ञ-फरस्जेंकी प्राप्ति कर वह निःसंदेह उत्तम लोकको प्राप्त
करता है।
पर्वकी समाप्तिपर गन्ध, माला, विविध वख आदिसे
वाचककी पूजा करनी चाहिये । स्वर्ण, रजत, गाय, काँसेका
दोहन-पात्र आदि वाचकको प्रदान कर कथा-श्रवणका फल
प्राप्त करना चाहिये। वाचकसे बढ़कर दान देने योग्य सुपात्र
और कोई नहीं है, क्योकि उसकी जिद्धाके अग्रभागपर सभी
शास्त्र विराजमान रहते हैं। जो श्रद्धापूर्वक्ष चाचककों भोजन
व्यास कहा जाता है। जिस देक्ष, नगर, गाँवपें ऐसा व्यास
निवास करता है वह क्षेत्र श्रेष्ठ माना जाता है । बहाँके निवासी
धन्य है, कृतार्ध है, इसमें संदेह नहीं। वाचकको प्रणामकरनेसे
जिस फलकौ प्राप्ति होती है, उस फलक प्राप्ति अन्य कर्मासि
नहीं होती।
जैसे कुरुकषे्रके समान कोई दूसरा तीर्थ नहीं, गङ्गाके
समान कोई नदी नहीं, भास्करसे श्रेष्ठ कोई देवता नहीं,
अश्वमेघके समान कोई यज्ञ नहीं, पुत्र-जन्मके तुल्य सुख नहीं,
वैसे ही पुराणवाच्क व्यासके समान कोई ऋह्मण नहीं हो
सकता । देवकार्य, पितृकार्य सभी कर्मोंमें यह परम पवित्र है" ।
राजन् ! इस प्रकार मैंने पुरणश्रवणकी विधि तथा
वाचकके माहात्यको बतलाया। विधिके अनुसार ही
पुराणादिका श्रवण एवं पाठ करना चाहिये। खान, दान, जप,
होम, पितृ-पूजन तथा देवपूजन आदि सभी श्रेष्ठ कर्म विधि-
कराता है, उसके पितर सौ वर्षतक तृप्त रहते हैं। जैसे सभी पूर्वक अनुष्ठित होनेपर ही उत्तम फल प्रदान करते हैं।
देवॉमें सूर्य श्रेष्ठ हैं वैसे ही आ्राह्मणोंमें वाचक श्रेष्ठ है। वाचक (अध्याय २१६)
व १५" आम
॥ भविष्यपुराणान्तर्गत ब्राह्मपर्व सम्पूर्ण ॥
१-कुरुक्ेजसस॑ तीथ म द्वितीय॑ प्रचक्षते। न नदी गङ्गया तुल्या त देवो भात्करादरः॥
गाश्वमेधसम पुण्यै न फाप॑ ब्रह्महत्यया | पुजजन्पसुशैस्तुल्ये॑ > सुख किधयते यथा ॥
तथा व्याससमों विप्रो = क्वचित् ष्यते नृप । दैवे कर्मणि पिज्ये च वनेः परमन नृणाम् ॥
(ऋ्यपर्व २९६११०९ १११)