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॥ पुराणं परमं पुण्यं भविष्यं सर्वसौख्यदम्‌ ५

[ संक्षिप्त भविष्यपुराणाडू

झतानीकने पूछा-- भगवन्‌ ! महाभारत, रामायण एवं

पुणो श्रवण तथा पठन किस विधानसे करना चाहिये ?

पुरण-वाचकके क्या लक्षण हैं ? भगवान्‌ खस्वोल्कका क्या

स्वरूप है ? आाचककी विधिवत्‌ पूजा करनेसे च्या फल होता

है ? पर्वकी समाप्निपर वाचकोंकों क्या देना चाहिये ? इसे आप

बतानेकी कृपा करें।

सुपन्तुजी ओले--राजन्‌! आपने इतिहास-पुराणके

सम्बन्धे अच्छी जिज्ञासा को है। महावाहो ! इस सम्बन्धमें

पूर्वकालमें देवगुरु बृहस्पति तथा ब्रह्माजीफे मध्य ज संवाद

हुआ था, उसे आप श्रवण करें ।

मानव विद्ेष भक्तिपूर्वक इतिहास और पुराणका श्रवण

कर ब्रह्महत्यादि सभी पपे मुक्त हो जाता है । पवित्र होकर

प्रातः, सायं तथा रात्रियै जो पुराणका श्रवण करता है, उस

व्यक्तिसे ब्रह्म, विष्णु तथा महेश संतुष्ट हो जाते हैं । प्रातःकाल

भगवान्‌ ब्रह्मा, सायंकाल विष्णु और रात्रिमें महादेव प्रसन्न होते

हैं'। राजन्‌ ! अब वायकके विधानकों सुनिये। पथित्र यस

पहनकर शुद्ध होकर प्रदक्षिणापूर्वक जव याचक आसनपर

बैठता है तो वह देवस्वरूप हो जाता है। आसन न बहुत ऊँचा

हो, न बहुत नचा । वाचके आसनकी सदा वन्दना की जानी

चाहिये । वाचकके आसनको व्यासपीठ कहा जाता है । पीठको

गुरुका आसने समझना चाहिये। बाचकके आसनपर सुनने-

यालेकों कभी भी नहीं बैठना चाहिये। देवताओंकी अर्चना

करके विशेषरूपसे ब्राह्मणकी पूजा करनी चाहिये। सभी

समागत व्यक्ति्योको साथ लेकर पुराण-प्रन्थ वाचकके लिये

प्रदान करे ¦ उस प्रन्थक्तो नतमस्तक हो प्रणाम करें। तब

आान्तचित्त होकर श्रवण करे।

ग्रन्थका सूत्र (धागा) वासुकि कल्य गया है। ग्रन्थका पत्र

भगवान्‌ ब्रह्मा, उसके अक्षर जनार्दन, सूत्र शंकर तथा पंक्तियाँ

सभी देखता हैं। सूत्रके मध्यमे अग्रि और सूर्य स्थित रहते हैं।

इनके आगे सभी ग्रह तथा दिशाएँ अवस्थित रहती दै । शैकुकों

मेरु कहा गया है। रिक्तस्थानक्ो आकाझ कहा गया है।

पन्थक ऊपर तथा नीचे रहनेवाले दो काप्रफलक द्यावा-

पृथिवीरूपमें सूर्य और चन्रमा हैं। इस प्रकार सम्पूर्ण ग्रन्थ

देवमय है और देवत्ाओंद्वारा पूजित है। इसलिये अपने

कल्याणका कामनासे इतिहास-पुराणादि श्रेष्ठ गन्थोंकी अपने

घरे रखना चाहिये, उन्हें. नमस्कार करना चाहिये तथा उनकी

पूजा करनी चाहिये ।

राजन्‌! वाचक पग्रन्थको हाथमें ग्रहण कर ऋह्या, व्यास,

वाल्मीकि, विष्णु, दिव, सूर्य आदिको भक्तिपूर्वक प्रणाम

करके श्रद्धासमन्वित होकर ओजस्वी स्वरम अक्षरोका स्पष्ट

उच्चारण करते हुए तथा सात स्वरॉसे युक्त यधासमय यथोचित

रस एवं भावोंको प्रकट करते हुए ब्रन्थका पाठ करे । इस प्रकार

वाचकके मुखसे जो श्रता नियमतः श्रद्धापूर्वक इतिहास-पुराण

और रामचरितको सुनता है, वह सभी फल्म्रेंको परापत कर सभी

गेगोंसे मुक्त हो जाता है और विपुल पुण्यको प्राप्त कर

भगवानके उत्तम और अद्भुत स्थानको प्राप्त करता ह ।

शरोताको चाहिये कि यह स्त्रानादिसे पवित्र होकर

वाचको प्रणाम करके उसके सम्मुख आसनपर बैठे और

वाणोको संयत कर सुसमाहित हो वाचककी बातोंको सुने ¦

महाबाद्ये ! व्यासस्वरूप वाचकको नमस्कार करनेपर

संशयके बिना अन्य कुछ भी नहीं बोलना चाहिये । कथा

सम्बन्धौ धार्मिक शंका या जिज्ञासा उत्पन्न होनेपर वाचके

गुरु और घर्मबन्धु है। वाचकको भी भलीभाँति उसे समझाना

चाहिये, क्योंकि वह गुरु है, इसौत्थ्यि सपर अनुग्रह करना

उसका धर्म है। उत्तस्के अनन्तर 'तुम्हा।ा कल्याण हो' यह

कहकर पुनः आगेकी कथा सुनानी चाहिये। श्रोताको अपनी

वाणीपर नियन्त्रण रखना चाहिये। वाचक ब्राह्मणको हौ होना

चाहिये । प्रत्येक मासमे पारण करे तथा वाचककी पूजा करे,

महीनाके पूर्ण होनेपर वाचकक्ं स्वर्ण प्रदान को ।

१-इतिहासपुफ्णानि श्रुत्वा घबत्या विशेषतः | मुच्यते सर्व्पेध्यो ब्रहाहत्यादिभिर्विभो ॥

सायै ्रातसत्य रत्रौ शुविर्भूला शुनोति यः तत्य विष्णुस्तथा ब्रह्मा तुष्यते शंकरस्तथा ४

फ्रत्यूषे भगवान्‌ ब्रह्मा दिनान्ते तुष्ते हरिः । महदेवस्तथा रगौ शृण्वतो तुष्यते विभु- ॥

२-इत्थे देखमय॑ ह्येतत्‌ पुस्तकैः देवपुजितम्‌ । नमस्ये पूजनतय च गुहैः स्थाप्य विभृलये ॥

{्र्मप्व २१६ । ४३--४५)

(आह्मपर्च २१६ ॥ ५८)

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