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१७८ [ संक्षिप्त धविष्यपुराणाङ्क

* पुराणं परमं पुण्य भविष्यं सर्यसौख्यदम्‌ *

जो भी माताएँ हों, उन्हें आदरपूर्वक निमन्तित करना चाहिये । बजे दिनका समय) और तिल--ये तीन पवित्र माने गये है

इस प्रकार माताओंको उद्दिष्ट कर छः पिण्ड बनाकर पूजन तथा तीन प्रशांसा-योग्य कहे गये हैं--शुद्धि, अक्रोध और

करना चाहिये। नान्‍्दीपुखको उद्दिष्ट कर पाँच उत्तम ब्राह्मणो शीघ्रता न न करना। एक वस्त्र धारण कर देव-पूृजन और

पाँच पितरोंके रूपमे भोजन कराना चाहिये । नान्दीमुख-श्राद्धमें पितरोंके कर्म नहीं करने चाहिये। बिना उत्तरीय व्र धारण

ब्राह्मणोंकों बिधिवत्‌ भोजन कराकर उनकी प्रदक्षिणा करनी किये पितर. देवता और मनुष्योंका पूजन, अर्चन तथा भोजन

चाहिये। आदि सय कार्य निष्फल होता है।

खगपते ! श्राद्धमे दौहित्र अर्थात्‌ नाती, कुतुप वेल्त्र (एक (अध्याय १८५)

सौरधर्ममें शुद्धि-प्रकरण

भगवान्‌ भास्करने कहा-- खगाधिप ! ब्राह्मणोंको

नित्य पवित्र तथा मधुरभाषी होना चाहिये उन्हें प्रतिदिन

स्ानादिसे पवित्र हो चम्द्नादि सुगन्धित द्रव्यॉक्रे धारणकर

देवताओंका पूजन आदि करना चाहिये। सूर्यको निष्प्रयोजन

नहीं देखना चाहिये और नप्न स््रीको भी नहीं देखना चाहिये।

मैथुनसे दूर रहना चाहिये। जलमें मूत्र तथा विष्ठाका परित्याग

नहीं करना चाहिये। शास्त्रोक्त नियमोंके अनुसार कर्म करने

चाहिये। शास्र-वर्णित कर्मानुष्ठानके अतिरिक्त कोई भी त्रतादि

नहीं करने चाहिये।

खगाधिपते ! अभक्ष्य-भक्षण सभी वर्णोकि लिये वर्जित

है। द्रव्यकी शुद्धि होनेपर ही कर्मकी शुद्धि होती है अन्यथा

कर्मके फलकी प्राप्तिमें संशय हौ बना रहता है। जातिसे दुष्ट,

क्रियासे दुष्ट, कालसे दुष्ट, संसर्गसे दुष्ट, आश्रयसे दुष्ट तथा

सहल्लेख (स्वभावतः निन्दित एवं अभक्ष्य) पदार्थमें अथवा

दूषित हृदयके एवं कपर व्यक्तिके स्वभावमें परिवर्तन नहीं

होता। लहसुन, गाजर, प्याज, कुकुरमुत्ता, यैगन (सफेद)

तथा मूछी (छाल) आदि जात्या दूषित हैं। इनका भक्षण नहीं

करना चाहिये। जो वस्तु क्रियाके द्वारा दूषित हो गयौ हो

अथवा पतितोंके संसर्गसे दूषित हो गयी हो, उसका प्रयोग न

करे । अधिक समयतक रखा गया पदार्थ कालदूषित कहता

है, यह हानिकर होता है, पर दही तथा मघु आदि पदार्थ

कालदूषित नहीं होते। सुरा, लहसुन तथा सात दिनके अंदर

ब्यायी हुई गायके दूधसे युक्त पदार्थ और कुत्तेद्वारा स्पर्श किये

गये पदार्थ संसर्ग-दुष्ट कहे जाते हैं। इन पदार्थोंका परित्याग

करना चाहिये। शुद्रसे तथा विकल्म्ज़् आदिसे स्पृष्ट पदार्थ

आश्रय-दूषित कहा जाता हैं। जिस वस्तुके भक्षण करनेपें

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मनमें स्वभावतः धृणा उत्पन्न हो जाती है, जैसे पुरीष (विष्ठा)के

प्रति स्वभावतः घृणा उत्पन्न होती है--उसे ग्रहण नहीं

करना चाहिये। वह सहल्लेख दोषयुक्त पदार्थ कहा गया है।

खीर, दूध, पाकादिका भक्षण राखोक्त विधिके अनुसार ही

करना चाहिये।

सपिण्डमें दस दिन, बारह दिन अथवा पंद्रह दिन और

एक मासे प्रेत-शुद्धि हो जातौ है। सूतकाशौच तथा

मरणाज्ञौचमें दस दिनके भीतर किसी व्यक्तिके यहाँ भोजन नहीं

करना चाहिये । दशगात्र एवं एकादशाहके बीत जानेपर बारहवें

दिन नान करनेसे शुद्धि हो जाती है । संवत्सर पूर्ण हो आनेपर

स्रान-मात्से ही शुद्धि हो जाती है। सपिण्डमें जन्म और मृत्यु

होनेपर अज्ञौच लगता है। दाँत आनेतकके बालककी मृत्यु हो

जानेपर सद्यः शुद्धि हो जाती है। चूडाकरणके पहले बालककी

मृत्यु हो जानेपर एक दिन-रातकी अशुद्धि होतों है तथा

चूडाकरणके बाद और सज्ञोपवीत लेनेके पहले मृत्यु होनेपर

त्रिरात्र अशुद्धि होती है और इसके अनन्तर दशात्रकी अशुद्धि

छोती है। गर्भ-ख्ाव हो जानेपर तोन रात्रिके पश्चात्‌ जलसे स्नान

करनेके बाद शुद्धि होती है। असपिण्डी (एवं सगोत्री)-की

मृत्यु होनेपर तीन अहोरात्रके बाद शुद्धि होती है। यदि केवल

शव - यात्रा करता है तो खरानमात्रसे शुद्धि हो जाती है।

द्रव्यकी शुद्धि आगमे तपाने, मिट्टी और जलसे धोने

तथा मल हटाने, प्रक्षाऊन कले, स्पर्श और प्रोक्षण करनेसे

होती है। द्रव्य-शुद्धिक पश्चात्‌ स्नान करनेसे शुद्धि होती है।

आतःकाल्का स्नान नित्य-स््रान है, अहणमें खान करना कम्य

स्नान है तथा क्षौर और शौचा्िके पश्चात्‌ जो स्नान किया जाता

है वह नैमित्तिक खान है, इससे पापादिको निवृत्ति होती है।

(अध्याय ६८६)

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