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ब्राह्मपर्ण ]

[१ मातु-श्राद्धकी संक्षिप्त विधि +

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खीका भी एकोहि्ट श्राद्ध करना चाहिये। अमावास्या तथा

किसी पर्वपर जो श्राद्ध किया जाता है, उसे पार्वण-श्राद्ध कहते

हैं। गौओंके लिये किया जानेवाला श्राद्ध-कर्म गोष्ठ-श्राद्ध कहा

जाता है। पितरोकी तृप्तिक लिये, सम्पत्ति और सुखकी

प्राप्ति-हेतु तथा विद्वानॉकी संतुष्टिके निभि जो ब्ा्मणोकौ

भोजन कराया जाता है, वह चुद्धधर्थ-श्राद्ध है। गर्भाधान,

सीमन्तोन्नयन तथा पुंसवन-संस्कारोंके समय किया गया श्राद्ध

कर्माड्र-आद्ध है। यात्रा आदिके दिन देवताके उद्देश्यसे घीके

द्वारा किया गया हवनादि कार्य दैविक श्राद्ध कहत्मता है।

शरीरकी वृद्धि, शरीरकी पुष्टि तथा अश्ववृद्धिके निमित्त किया

गया श्राद्ध औपचारिक श्राद्ध कहछाता है। सभी श्राद्धो

सांबत्सरिक श्राद्ध सबसे श्रेष्ठ है। इसे मृत व्यक्तिकी तिथिपर

करना चाहिये। जो व्यक्ति सांवत्सरिक श्राद्ध नहीं करता,

उसकी पूजा न मैं ग्रहण करता हूँ, = विष्णु, ब्रह्मा, सदर एवं

अन्य देवगण हो ग्रहण करते हैं। इसलिये प्रयत्नपूर्वक प्रत्येक

वर्ष मृत व्यक्तिकी तिधिपर सांवत्सरिक श्राद्ध करना चाहिये।

जो व्यक्ति माता-पिताका वार्षिक श्राद्ध नहों करता, वह घोर

ताभि नामक नरको प्राप्त करता है और अन्तमें सूकर-

योनि उत्पन्न होता है।

अरुणने पूछा--भगवन्‌ ! जो व्यक्ति माता-पिताकी

मृत्युकी तिथि, मास और पक्षको नहो जानता, उस व्यक्तिको

किस दिन श्राद्ध करना चाहिये ? जिससे वह नस्कभागी न हो ?

भगवान्‌ आदित्यने कहा--पक्षिणतल् अरुण ! जो

व्यक्ति माता-पिताके मृत्युके दिन, मास और पक्षको नरौ

जानता, उस व्यक्तिकों अमावास्याके दिन सांवत्सरिक नामक

श्राद्ध करना चाहिये। जो व्यक्ति मार्गवं और साधम पितरोके

उद्यसे विशिष्ट भोजनादिद्वारा मेरी पूजा-अर्चना करता है,

उसपर मैं अति प्रसन्न होता हूँ और उसके पितर भी संतुष्ट हो

जाते हैं। पितर, गौ तथा ब्राह्मण--ये मेरे अत्यन्त इष हैं।

अतः बिद्ेष भक्तिपूर्वक इनकी पूजा करनी चाहिये ।

येद-विक्रयद्वारा और स्द्वारं प्राप्त किया गया घन

पितृकार्य और देय-पूजनादिमें नहीं लगाना चाहिये। वैश्वदेव

कर्मसे हीन और भगवान्‌ आदित्यके पूजनसे हीने वेट्वेता

ब्राह्मणको भौ निन्य समझना चाहिये। जो वैश्वदेव किये चिना

ही भोजन कर लेता है वह मूर्ख नरकक प्राप्त करता है, उसका

अन्न-पाक व्यर्थ है। प्रिय हो या अप्रिय, मूर्ख हो या विद्वान्‌

चैश्वदेव कर्मके सपय आया हुआ व्यक्ति अतिथि होता है और

यह अतिथि स्वर्गका सोपानरूप होता है। जो बिना तिधिका

विचार किये ही आता है उसे अतिथि कहते हैं। वैश्देव-

कर्मके समय जो न तो पहले कभी आया हो और न ही उसके

पुनः आनेकी सम्भावना हो तो उस व्यक्तिको अतिथि जानना

चाहिये । उसे साक्षात्‌ विश्वेदेकके रूपमे हौ समझना चाहिये ।

{अध्याय १८३-१८४)

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मातृ-भ्राउ्धकी संक्षिप्त विधि

भगवान्‌ आदित्यने कहा--अरुण ! रात्रिम श्राद्ध भोजन कराना चाहिये तथा एक और अन्य नवम सर्वदैत्य

नहीं करना चाहिये । सत्रिमें किया गया श्राद्ध राक्षसी श्राद्ध कहा

जाता है। दोनों संध्याओमिं और सूर्यके अस्त होनेपर भौ श्राद्ध

करना निषिद्ध है।

अरुणने पूछा--भगवन्‌ ! माताका श्राद्ध किस प्रकार

करना चाहिये और माता किन्हें माना गया है ? नान्दीमुख-

पितरोंका पूजन किस प्रकार करना चाहिये, इन्हें मुझे बतानेकी

कृपा करें। ु

भगवान्‌ आदित्यने कहा--खगशार्दूल ! मैं मातृ-

श्राद्धको विधि बतला रहा हूँ, उसे सुतिये।

मातृश्रद्धपे पूर्वाह्न-कालमें आठ विदान्‌ ब्राह्मणोको

ब्राह्मणक भी धोजन देना चाहिये । इस प्रकार नौ ब्राह्मणको

भोजन कराना चाहिये । खव, तिर, दधि, गन्ध-पुष्पादिसे युक्त

आर्ध्यद्वारा सबकी पूजा करनी चाहिये तथा सभी गआ्राह्मणोंकी

प्रदक्षिणा करनी चाहिये । ब्राह्मणोंकों मधुर मिष्टान्न भोजन

कराना चाहिये । भोजनम कटु पदार्थ नहीं होने चाहिये । इस

प्रकार ब्राह्छणोको भोजन कराकर पिण्डदान देना चाहिये ।

दही-अक्षतका पिष्ड चनाये। एक चौरस पष्डप बनाकर

उसकी प्रदक्षिणा करे । सव्य होकर हाथसे पूर्वापर कुदो

तथा पुष्पको चाना चाहिये । माता, प्रपाता, वृद्धप्रमाता,

पितामही, प्रपितामही, वृद्धप्रपितामही तथा अन्य अपने कु

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