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+ पुराणं परं पुण्यं भविष्य सर्वसौ ख्यदम् °
{ संक्षिप्त भविष्यपुराण
यज्ञ आदिके योग्य नहीं है । द्विजातियोको चाहिये कि
विचारपूर्वक इन देझोंमें निवास करें ।
भगवान् आदिस्यने पुनः क्ा-- खगराज ! अय मैं
आश्रमधर्मं बतला रहा हूँ। ग्रह्मचर्याश्रम-धर्म, गृहस्थाश्रम
धर्म, वानप्रस्थाश्रम-धर्म और संन्यासाश्रम-घर्म--क्रमसे इन
चार प्रकारसे जीवनयापन करनेको आश्रमधर्म कहा जाता है।
एक ही धर्म चार प्रकारसे विभक्त हो जाता हैं। अ्यचारीको
गायत्रीकी उपासना करनी चाहिये । गृहस्थकों संतानोत्पत्ति और
ब्राह्मण, देव आदिकी पूजा करनी चाहिये। कानप्रस्थीको
देवव्रत-धर्मका और संन्यासीको नैष्ठिक धर्मकः पालन करना
चहिये । इन चारो आश्रमोंके धर्म वेदमूलक है । गृहस्थकों
ऋतुकाले मन्त्रपूर्वक गर्भाघान-संस्कार करना चाहिये तीसरे
म्वासमें पसवन तथा छठे अथवा सातवें पासमें सीमत्तोश्रयन-
संस्कार करना चाहिये। जन्पके समय जातकर्म-संस्कार करना
चाहिये। जातक (दिक) को स्वर्ण, घी, मधुका मन्त्रोंद्वार
प्राशन कराना चाहिये । जन्मसे दसवें, ग्यारहवें या बारहवें दिन
शुभ मुहूर्त, तिथि, नक्षत्र, योग आदि देखकर नामकरण-
संस्कार करना चाहिये। शास्रानुसार छठे मासमें अत्रप्रादान
करना चाहिये। सभी द्विजाति बराल्कोंका चूड़ाकरण-संस्कार
एक वर्ष अथवा तीसरे वर्वपे करना चाहिये। ब्राह्मण-
कलकका आटे वर्षमें, क्षत्रियका ग्यारहवें और वैश्यका
बारहवें वर्षमे यज्ञोपवीत- संस्कार करना उत्तम होता है । गुरुसे
गायत्रीकी दीक्षा ग्रहण कर वेदाध्ययन करना चाहिये ।
विच्चाध्ययनके पश्चात् गुरुकी आशा प्राफ़्कर गृहस्याश्रममे प्रवेष्
करना चाहिये और गुरुको यथेष्ट सुवर्णादि देकर प्रसन्न करना
चाहिये। गृहस्थाश्रममें प्रवेश कर अपने समान वर्णवाली उत्तम
गुणोंसे युक्त कन्यास विवाह करना चाहिये। जो कन्या माता-
पिताके कुलसे सात पीढ़ीतककी न हो और समान गोत्रकी न
हो ऐसी अपने वर्णकी कन्यासे विवाह करना चाहिये।
विवाह आठ प्रकारके होते ह~ ब्राह्म, रैव, आर्ष,
प्राजापत्य, आसुर, गान्धर्व, राक्षस और पैज्ञाच। वर और
कन्याके गुण-दोष्को भलीभाँति परखनेके नाद ही विवाह
करना चाहिये। कन्याएँ अवस्था-भेदसे चार प्रकारकी होती हैं
जिनके नाम इस प्रकार हैं--गौरी, नग्निका, देवकन्या तथा
ग्रेहिणी। सात वर्षकी कन्या गौरी, दस वर्धकी नप्रिका, बारह
वर्धकी देवकन्या तथा इससे अधिक आयुकी कन्या रोहिणी
(रजस्वला) कहलाती है । निन्दित कन्याओंसि विवाह नहीं
करना चाहिये । द्विजातियोको अप्रिके साक्ष्यमे विकह करना
चाहिये । खी-पुरुषके परस्पर मधुर एवं दृढ़ सम्बन्धोंसे धर्म,
अर्थं और कामकी उत्पत्ति होती है और वही मोक्षका कारण
भी है।
(अध्याय १८१-१८२)
दक
श्राद्धके विविध भेद तथा वैश्वदेव-कर्मकी महिमा
भगवान् सूर्यने अनूरु (अरुण ) से कहा-- अरुण !
द्विजमात्रको विधिपूर्वक पञ्चमहायज्ञ -- भूतयज्ञ, पितृयज्ञ,
ब्रह्मयज्ञ, दैवयज्ञ और मनुष्ययज्ञ करना चाहिये । बलिवैश्वदेव
करना भूतयज्ञ, वर्षण करना पितृयज्ञ, केदका अध्ययन और
अध्यापन करना ब्रह्मयज्ञ, हवन करना देवयज्ञ तथा घरपर
आये हुए अतिथिको सल्क्रपूर्वक भोजन आदिसे संतुष्ट करना
मनुष्ययज्ञ कहा जाता है ।
श्राद्ध बारह प्रकारके होते हैं--नित्य-श्राद्ध, नैमित्तिक-
श्राद्ध, काम्य-श्राद्ध, वृद्धि-श्राद्ध, सपिप्डन-श्राद्, पार्वण-
आड, गोष्ठ-श्राद्ध, शुद्धि-श्राद्, कर्म्ग-श्राद्ध, दैविक श्राद्ध,
औपचारिक श्राद्ध तथा सांवत्सरिक श्राद्ध । तिल, व्रीहि
(धान्य), जल, दूध, फल, मूल, शाक आदिसे पितँकी
संतुष्टिक लिये प्रतिदिन श्राद्ध करना चाहिये। जो श्राद्ध
प्रतिदिन किया जाता है, वह नित्य श्राद्ध है। एकोदिप्ट
श्राद्धको नैमित्तिक -ऋद्ध कहते हैं। इस श्राद्धको विधिपूर्वक
सम्पन्न कर अयुग्म (विषम संख्या) ब्राह्मणोको भोजन
कराना चाहिये। जो श्राद्ध कामनापसक किया जाता है,
वह करम्य-श्राद्ध है। इसे पार्वण-श्राद्धछ विधिसे करना
चाहिये। वृद्धिक स्म्यि ज श्रद्ध किया जाता है, उसे वृद्धि-
श्राद्ध कहते हैं। ये सभी श्राद्धकर्म पूर्वाह्न-कालमें उपवीती
होकर करने चाहिये। सपिण्डन-श्राद्धमें चार पात्र बनाने
चहिये । उनमें गन्ध, जल और तिल छोड़ना चाहिये। प्रेत-
पात्रका जल पितृ-पात्रमें छोड़े। इसके लिये 'ये सम्ताना:*'
(यजुः १९ | ४५-४६) सजोंका पाठ करना चाहिये।