जाह्यपर्त ]
° सौर-धर्ममें झान्तिक कर्म एवं अभिषेक-विधि +
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नागराजेन्द्र अनन्त, अत्यन्त पीले ऋशीरवाले, विस्फुरित
फणवाले, स्वस्तिक-चिहसे युक्त तथा अत्यन्त तेजसे उदीप
नागराज तक्षक, अत्यन्त कृष्ण वर्णवाते, कण्टमे तीन
रेखाओंसे युक्त, भयंकर आयुधरूपौ दैष्टसे समन्वित तथा
विषके दर्पसे बल्म्नन्वित महानाग कर्कोटक, पद्यके समान
कान्तिवाले, कमलके पुष्पके समान नेत्रवाले, पद्यवर्णके
महानाग पद्म, स्थामवर्णवाले, सुन्दर कमलके समान नेत्रवाले,
विषरूपी दर्पसे उन्मत्त तथा प्रीवापे तीन रेखावाले ओभासम्पन्न
महानाग झेखपाल, अत्यन्त गौर शारीरा, चन्ार्धकृत-
शेखर, सुन्दर फे युक्त नागर कुलिक (और नागणज
वासुकि) सूर्यकी आराधना करनेवाले--ये सभी अष्टनाग
प्रहलिषको नष्ट कर्के आपको निरन्तर अचल महाशान्ति
प्रदान करें। अन्तरिक्ष, स्वर्ग, गिरिकन्दराओं, दुर्गो तथा भूमि
एवं पातालम रहनेयाले, भगवान् सूर्यके अर्चनमें आसक्त
समस्त नागगण और नागपन्नियां, नागकन्याएँ तथा नागकुमार
सभी प्रसन्नचित्त होकर आपको सदा शान्ति प्रदान करें।'
जो इस नाग-शान्तिका श्रवण या कर्तन करता है, उसे
सर्पगण कभी भी नहीं काटते और विषका प्रभाव भी उनपर
नहीं पड़ता |
तदनन्तर गङ्गादि पुण्य नदियों, यक्षेद्रों, पर्यल, सागरों,
राक्षसो, प्रेतों, पिशाचों, अपस्मारादि ग्रहों, सभी देवताओं तथा
भगवान् सूर्यसे झाक्तिकी कामनाके लिये इस प्रकार प्रार्थना
करनी चाहिये---
'परहाधिपति भगवान् सूर्यकी नित्य आराधना करनेवाल्ली
वरुणा, देविका, निरञ्जना तथा मन्दाकिनी आदि नदियां और
प्रह्मनद दोण, पृथ्वी, स्वर्ग एवं अन्तरिश्मे रहनेव्यली नदियाँ
आपको नित्य झान्ति प्रदान करें। यक्षराज कुबेर, महायक्ष
मणिभद्र, यक्षेद्र सुचिर, पाशिक, महातेजस्वी घृतराष्ट्र, यक्षेन्द्र
विरूपाक्ष, कञ्जाक्ष तथा अन्तरिक्ष एवं स्वर्गपें रहनेवाले समस्त
यक्षणण, यक्षपल्नियाँ, यक्षकुमार तथा यक्ष-कन्याएँ जो सभी
सूर्यकी आराधनामें तत्पर रहते हैं---ये आपको शान्ति प्रदान
करें, नित्य कल्याण, यर, सिद्धि भी ज्ीघ्र प्रदान करें एवं
मङ्गलमय बनायें।
गङ्गा पुण्या महादेखी यसुता नर्मदा नी । गौतमौ चषि कावेरी वरुणा देधिवर तथा ॥
सर्वद्रहपति देवं ल्के स्येकनायक्तम् ।
:. सूर्यसद्रावभाविता: । शाक्ति वुर्यनतु ते सत्यै सूर्यध्यानिकमानसा:
आोणश्षापि मछानट: । मन्टकिलो च परमो तंथा संनिहित शुभा ॥
भूवि दिव्यन्तरिक्षके सुर्वचयरतः नद्यः कुर्वन्तु तय ॒पान्तिकिम् ॥
यक्षराजो.. म्कूर्षिक: । यक्षकप्रेटिपरीवारों शक्षासंस्येयसंयुतः ॥
पाञ्चिको कमे यक्षेद्र- कण्झाभरणभूषितः | कुफुटेत विचित्रिण बहुर्ाव्कितेव तु
यक्षवृन्दसमाकीर्े
धतगष्टो यद्छतेजा नानायक्षाधिषः खग । दिव्यपट्ट:
अन्तरिक्षगता यक्षा ये यक्षाः स्कॉगामितः | कनारूपधराः यदः सूर्वभक्ता दूदवरताः ॥
तद्भरक्तास्तद्रतमनसेः सूर्यपूनासमुत्सुका: । रान्ति कुर्वल्ु ते ष्टाः शानः दानपरायणः ॥