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आह्मपर्य )

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१५९

कनेर. केशर, अगस्त्य, बक तथा कमल-पुष्पोंद्वारा यथादाक्ति

भगवान्‌ सूर्यकी पूजा करनेवाल्व कोटि सूर्यके समान

देदीष्यम्डन विमानसे सूर्यस्मेकक्ते प्राप्न करता है अथवा पृथ्वी

या जलूमें उत्पन्न पुष्पोंड्वारा श्रद्धापूर्वक पूजन करनेवारो

सूर्यल्मेकमें प्रतिष्ठित होता है।

(अध्याय ह६३)

सूर्यषष्टी-ब्रतकी महिमा

सुमन्तु मुनि बोले--राजन्‌! अब आप भगवान्‌

सूर्यक्रो अत्यन्त प्रिय सूर्यषष्टी-त्रतके विषयमें सुनें ।

सूर्यषष्टी-ब्रत करनेयालेक्त्रे जितेन्द्रिय एवं क्रोघरहित होकर

अयाचिते-व्रतका पालन करते हुए भगवान्‌ सूर्यको पूजामें

तत्पर रहना चाहिये। व्रतीको अल्प और सास्विक-भोजी तथा

रात्रिभोजो होना चाहिये। खान एवं अग्रिकार्य करते रहने

चाहिये ओर अधःकायी होना चाहिये! मध्याहमें

मैध्यामे गुद्माकोंडा) भोजन किया जाता है। अतः इन सभी

क्रक अतिक्रमणकर सूर्यब्रतोके भोजनका समय रत्रि ही

माना गया है । मार्मदी्षं मासके कृष्ण पक्षकी षष्ठीसे यह त्रत

आरम्भ करना चाहिये। इस दिन भगवान्‌ सूर्यकी 'अंधुमान'

नामसे पुजा करनी चाहिये तथा रात्रिसें गोमृत्रका प्रादानकर

निराहार हो विश्राम करना चाहिये । ऐसा करनेवाला व्यक्ति

अतिरात्र-यज्ञक फल प्राप्त करता है। इसी प्रकार पौषमें

भगवान्‌ सूर्यकी 'सहखांशु' नापसे पूजा करे तथा घृतका

प्राशन करे, इससे वाजपेययज्ञका फल प्राप्त होता है।

माघ मासमें कृष्ण पक्षकी षष्ठीको ररि गोदुग्ध-पान

करे । सूर्यकी पूजा 'दिवाकर' नामसे करे, इससे महान्‌ फल

श्राप्त होता है। फल्गुन मासमें 'मार्तण्ड' नामसे पूजाकर,

गोदुष्घका पान करनेसे अनन्त कालूतक सूर्यलमेके प्रतिप्तित

होता है। चैत्र मासमें भास्करकी 'विवस्वान' नामसे भक्तिपूर्वकं

पूजाकर हृविष्य-धोजन करनेवाल्ला सूर्यल्त्रेकमें अप्सराओंके

साथ आनन्द प्राप्त करता है। वैज्ञाख मासमें 'चप्डकिरण'

नामसे सूर्यकी पूजा करनेसे दस हजार वर्षोंतक सूर्यलोकमें

आनन्दे प्राप्त करता है। इसमें पयोत्रती होकर रहना चाहिये।

ज्येष्ठ मासमे भगवान्‌ भास्करकी 'दिवस्पति' नामसे पूजा कर

गो-शूड़का जलू-पान करना चाहिये। ऐसा करनेसे कोटि

गोदानका फल प्राप्त छोता है। आषादृ मासके कृष्ण पक्षको

करनेसे सूर्यल्लोककी प्राप्ति होती है। श्रावण घासमें “अर्यपा'

नामसे सूर्यका पूजनकर दुग्ध-पान करे, ऐसा करनेवात्त

सूर्यल्थ्रेकमें दस हजार वर्षोतक आनन्दपर्वक रहता है। भाद्रपद

मासमे “भास्कर' नामसे सूर्यकी पूजाकर पश्चगव्य-प्राझन करे,

इससे सभी यज्ञोका फल प्राप्त होता है। आश्विन मासके कृष्ण

पक्षकी पष्टीमें 'भग' नामसे सूर्यकी पूजा करें, इसमें एक पल

गोमूत्रका प्राशन करनेसे अश्वमेध यज्ञका फल प्राप्त होता है ।

कार्तिक मासके कृष्ण पक्षकी षष्ठको 'शक्र' नामसे सूर्यकी

पूजाकर दुर्वाडडरका एक बार भोजन करनेसे राजसुय यज्ञका

फल प्राप्त होता है।

यर्षके अन्तये सूर्य-भक्तिपरायण ब्राह्मणको मधुसंयुक्त

पायसका भोजन कराये तथा यथादक्ति स्वर्ण और यस्ादि

समर्पित करे । भगवान्‌ सूर्यके लिये काले रंगकी दूध देनेवाली

गाय देनी चाहिये। जो इस ब्रतका एक वर्षतक निरन्तर

विधिपूर्वक सम्पादन करता है, वह सभी पापोंसे विनिर्मुक्त हो

जाता है एवं सभी कायनाओंसे पूर्ण होकर शाश्रत कालतक

सूर्यछोकमें आनन्दित रहता है।

सुमन्तु मुनि बोले--राजन्‌ ! इस कृष्ण-षष्ठी-कतको

भगवान्‌ सूर्यने अरुणसे कहा धा । यह व्रत सभी पापका नादा

करनेवाला है । भक्तिपूर्वक भगवान्‌ भास्करकी पूजा करनेवात्र

मनुष्य अपित तेजस्वी भगवान्‌ भास्करके अमित स्थानके प्राप्त

करता है । (अध्याय १६४)

उभयसप्रमी-त्रतका वर्णन

सुमन्तु मुनिने कहा--राजन्‌ ! अब मैं आपको धर्म,

सप्नभियोंको जो शालि (धान), गेहूँके आटेसे बने पकात्न तथा

अर्थ, काम, मोक्ष इस चतुर्वर्गकी प्राप्ति करनेवाले भगवान्‌. दूधका रात्रिमें भोजन करता है और जितेन्द्रिय रहता है, सत्य

सूर्यके उत्तम ब्रतको बतत््रता हूँ। पौष मासके उभयपक्षकों

जलता है तथा दिनधर उपवास करता है, तीनों संध्याओपें

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