ज्राह्मपर्त ]
+ ब्राद्मादि देवताओंड्रारा भगवान् सूर्पकी स्तुति एवं वर-प्राप्ति +
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पुएणादि ग्रन्थोंकी व्याख्या सुनानी चाहिये। मेरा नित्य-प्रति
स्मरण करना चाहिये। इस प्रकारके उपचारोंसे जो अर्चन-
पूजन-विधि बतायौ गयी है, वह सभी प्रकारके लोगोंकि लिये
उत्तम है। जो कोई इस प्रकारसे भक्तिपूर्वक मेरा पूजन करता
है, वही मुनि, श्रीमान्, पण्डित और अच्छे कुमे उत्पन्न है।
जो कोई पत्र, पुष्प, फल, जल आदि जो धी उपल्य्य हो
उससे मेरी पूजा करता है उसके लिये न मैं अदृश्य हैँ और न
यह मेरे लिये अदृश्ष्य है। मुझे जो व्यक्ति जिस 'भावनासे
देखता है, मैं भी उसे उस रूपमे दिखायी पड़ता हूँ। जहाँ मैं
स्थित हूँ, वहीं मेण भक्त भी स्थित होता है। जो मुझ
सर्वव्यापीको सर्वत्र और सम्पूर्ण प्राणियोधि स्थित टेखता है,
उसके लिये मैं उसके हृदयमें स्थित हैँ और वह मेरे हदये
स्थित है। सूर्यकी पूजा करनेवाला व्यक्ति बड़े-बड़े राजाऑपर
विजय प्राप्त कर लेता है। जो व्यक्ति मनसे मेण निरन्तर ध्यान
करता रहता है, उसकी चिन्ता मुझे बराबर बनी रहती है कि
कहीं उसे कोई दुःख न होने पाये। मेरा भक्त मुझको अत्यन्त
प्रिय है। मुझमें अनन्य निष्ठा ही सव धोका सार है।
(अध्याय १५१)
र
ब्रह्मादि देवता ओद्वारा भगवान् सूर्यकी स्तुति एवं वर-प्राप्नि
सुमन्तु सुनि ओोले--राजन् ! भगवान् सूर्यकी भक्ति,
पूजा और उनके लिये दान करना तथा हवन करना सबके
वशकी बाते नहीं है तथा उनकी भक्ति और ज्ञान एवं उसका
अभ्यास करना भो अत्यन्त दुर्कभ है। फिर भी उनके पूजन-
स्परणसे इसे प्राप्त किया जा सकता है। सूर्य मन्दिरे सूर्यकी
प्रदक्षिणा करनेसे वै सदा प्रसन्न रहते है। सूर्यचक्र बनाकर
पूजन एवं सूर्यनारायणका स्तोत्र-पाठ करनेवास्म व्यक्ति इच्छित
फल एवं पुण्य तथा विषर्योका परित्यागकर भगवान् सूर्यमें
अपने मनकों लगा देनेवाल्म्र मनुष्य निर्भीक होकर उनको
निश्चल भक्ति प्राप्त कर लेता है।
राजा शतानीकने पूछा--द्विजश्रेष्ट ! मुझे भगवान्
सूर्यको पूजन-विधि सुननेकी बड़ी हौ अभितप्था है। मैं आपके
ही मुखसे सुनना चाहता हूँ। कृपाकर कहिये कि सूर्यकी प्रतिमा
स्थापित करनेसे कौन-सा पुण्य और फल प्राप्त होता हैं तथा
सम्मार्जन करने ओर गन्ध आदिके लेपनसे किस पुण्यको प्राप्ति
होती है। आरती, नृत्य, मङ्गल -गीत आदि कृत्योकि कानेसे
कौन-सा पुण्य प्राः होता है। अर्ध्यदान, जल एवं पञ्चामृत
आदिमे सान. कुद्दा, रक्त पुष्प, सुवर्ण, रत्न, गन्ध, चन्दन,
कपूर आदिके द्वारा पूजन, गन्धादि -विलेपन, पुराण-श्रवण एवं
वाचन, अव्यङ्ग दान और व्योपरूपमे भगवान् सूर्यं तथा
अरुणकी पूजा करनेसे जो फल प्राप्त होता है, यह बतलानेकी
कृपा करें ।
१-नगम्न देवदेवे
आख्कताव ज्मो नव्यं लणॉत्कय ननो नमः । विष
सुपन्तु मुनि बोले--राजन् ! प्रधम आप भगवान्
सूर्यके महनीय लेखके चिषये सुने । कल्पके प्रारम्भमें ग्रह्मादि
देवगण अहैकारके वज्ञीधृत हों गये । तमरूपी मोहने उन्हें
अपने वदे कर लिया । उसी समय उनके अहहेकारको दूर
करनेके लिये एक महनीय तेज प्रकट हुआ, जिससे यह सम्पूर्ण
विश्व व्याप्त हो गया। अख्रकार-नाशक तथा सौ योजन
विस्तारयुक्त वह तेज:पुज्ञ आकाशमें भ्रमण कर रहा था।
उसका प्रकादा पृथ्वीपर कमलकी कर्णिकाकी भाँति दिखलायी
दे रहा था। यह देख ब्रह्मादि देखणण परस्पर इस प्रकार थिचार
करने लगें--हमत्मेगॉंका तथा संसारका कल्याण करनेके
लिये ही यह तेज प्रादुर्भूत हुआ है ! यह तेज कहाँसे प्ादरभूल
हुआ, इस विषयमें वे कुछ न जान सके और इस तेजने सभी
देवगणॉंकी आश्चर्यचकित कर दिया । तेजाधिपति उन्हें दिखायी
भी नहीं पड़े। ब्रह्मादि देवताओंने उनसे पूछा--देव ! आप
कौन हैं, कहाँ हैं, यह तेजकी कैसी पक्ति है हम सभी लोग
आपके दशान करना चाहते हैं। उनकी प्रार्थनासे प्रसन्न हो
भगवान् सूर्यनारायण अपने विराट् रूपमे प्रकट हो गये । उस
महनीय तेजःस्वरूप भगवान् भास्कस्कर देवगण पृथक्-पृथक्
वन्दना करने लगे।
कद्याजीकी स्तुतिका भाव इस प्रकार दै" ---हे देवदेवे !
आप सहसत किरणोसे प्रकाशमान हैं। करोणयर्लभध ! आप
संसारके लिये दीपक हैं, आपको नमस्कार है। अन्तरिक्षमें
साहस््नकिरणासज्यल्त | स्प्रेकदीप नमस्तेऽस्तु अमस््ते कोेणवल्लभ ॥
कारचमाश
स्प्किनेयते ॥