+ सूर्यमण्डलस्थ पुरुषका वर्णने «
॥१\,।
साम्बोपाख्यानमें भगवान् सूर्यको अर्घ्य प्रदान करने
ओर धूप दिखानेकी महिमा
सुमन्तु पुनि खोले--राजन् ! इस प्रकार व्यासजीके
द्वारा अव्यङ्गे विषयमे जानकी प्राप्त कर साम्ब नारदजीके
पास वापस तौर आये और उन्होंने उनसे सब वृत्तान्त बताकर
पूछा--'देवर्षे ! भोजकॉंकों भगवान् सूर्यको खान, अर्ध्य,
आचमन, धूप आदि किस प्रकार समर्पित करना चाहिये ?'
इसका आप कृपाकर वर्णन करें।
नारदजी बोले--साम्ब ! संक्षेपं मै वह विधि बता
रहा हूँ, सावधान होकर सुनो। सर्वप्रथम सौचादिसे निवृत्त
होकर आचमजपूर्वक नदीमें या जलाशय आदिपे खान करना
चाहिये। अनन्तर स्वर्णदान कर तीन चार आचमन करे । शुद्ध
क्ख पहनकर पवित्री धारणकर पू्याभिमुख या उत्तराभिमुख हो
आचमने करना चाहिये । तदनन्तर दो बार मार्जन और तीन बार
अभ्युक्षण करें आचमनके यिना कौ गयो क्रिया निष्फल होती
है एवं इसके बिना पुरुष शुद्ध भौ नहीं होता । बेदमें कहा गया
है कि देवता पवित्रताको ही चाहते हैं। आचमन करनेके आद
मौन होकर देवालूयमें जाना चाहिये। आसनपर बैठकर
प्राणायाम कर सिरकों कपड़ेसे आच्छादित करे तथा विविध
पुष्पोसे सूर्यभगवानको पूजा करे । व्याहतिपूर्वक गायत्री-मन्त्रसे
गुणुलका धूप दे । फिर भगवान् सूर्यके मस्तकपर पुष्पाञ्जलि
अर्पित करे ।
रक्तचन्दन, पदा, करवीर, कृकृम आदिको जलमें
पिलाकर ताम्नके पात्रसे भगवान् सूर्यको अर्ध्यं देना चहिये ।
अर्ध्यपात्रको हाथमें उठाकर भगवान् सूर्गक आवाहन करे
तथा दोनों जानुऑपर टकर भगवान् सूर्यका अपने हृदयमें
ध्यान करते हुए नीचे लिखे मन्त्रसे अर्घ्यं प्रदान करे--
एहि सूर्य सहस्रौशो तेजोराशे जगरपते ।
अनुकग्पां हि में कृत्या गृह्मणाध्यै दियाकर ॥
तदनन्तर इस प्रकार प्रार्थना करें--
अर्चितस्त्वे यथाहाक्त्या मया भक्त्या विभावसो ।
ऐहिकामुष्पिकी नाध कार्यसिद्धि ददस्व ये॥
(आहापर्स १४३ ॥ ४७)
तीनों काल स्ानकर इस प्रकार जो भगवान् सूर्यकी
आराधना करता है और धूप देता है, वह अश्वपेध-यज्ञका
फल प्राप्त करता है और उसे धन, पुत्र तथा आरोम्यकी भी
प्राप्ति हो जाती है एवं अन्ते यह भगवान् सूर्यमें लीन हो जाता
है। उत्तम पुष्पोंके न मिलनेपर पत्रोंसे ही पूजन करे। धूप ही
दे या भक्तिपूर्वक जल हो सूर्यको समर्पित करें । यदि यह भी
न हो सके तो प्रणाम ही करे। प्रणाम करनेमें असमर्थ हो तो
मानसी पूजा करे । यह विधि द्रव्यके अभावे करनी चाहिये,
द्रव्य रहनेपर विधिपूर्वक सभी सामग्रियोंसे पूजन करे।
भक्तिपूर्वक सुर्यभगवानको पूजा देखनेवालेको भी अश्वमेध-
यज्ञका फल मिलता है और सूर्यल्लेककी प्राप्ति होती है।
धूप-दानके समय सूर्यका दर्दानि करनेपर उत्तम गति प्राप्त
होती है। (अध्याय १४३)
सूर्यमण्डलस्थ पुरुषका वर्णान
सुमन्तु मुनि बोले--राजन् ! एक बार व्यासजी शङ्ख
चक्र-गदाधारी नारायण भगवान् श्रीकृष्णके दर्शनके लिये
द्वारका आये। महातेजस्वी श्रीकृष्णने पाद्य, अर्य, आचमनं
आदिमे उनका पूजन कर आसनपर् उन बैठाया और प्रणाम
कैर् साम्बद्रारा लाये गये भोज़कॉकी महिमा तथा उनकी
सूर्यभक्तिके विषयमे जिज्ञासा प्रकट की ।
भगवान् वेदव्यास बोले--भोजक भगवान् सुर्वके
अनन्य उपासक हैं और अवन्तमे ये भगवान् सूर्यको दिव्य
तेजस्वी कत्यमे प्रविष्ट होते रै । भगवान् भास्करको तोन कत्लाएँ
हैं। सूर्यनारायणकौ प्रथम कला अग्रिमे स्थित है, उससे सभी
कर्मोंकी सिद्धि होती है। दूसरी प्रकादिका कलम आकादामें
स्थित है। तीसरी कला सूर्यमण्डलमें है। सबितादेवका यह
मण्डल अजर एवं अव्यय है। इस मण्डल्के मध्यमें
सदसदात्मक वह परमात्मा पुरुष-रूपमें स्थित है। वह पुरुष
क्षर-अक्षरूपमें है, इसको महासूर्य कहते हैं। इसके निष्कः
और सकल दो भेद है। तत्के साथ सभी भूतोपे आवस्थित
चह परमात्मा सकल कहा जाता हैं और तत्वकीन होनेपर
निष्कलः । तृण, गुल्म, लता, युक्ष, सिंह, वक, हाथी, पशन,