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श्डर * पुराणौ परमं पुण्य॑ भविष्य सर्वसोख्यदम «

[ संक्षिप्त भविष्यपुराणाडू

सूर्यकी पूजा करनेवाले मग श्ाकद्वीपमें निवास करते हैं, आप चयि मैं आपकी सेवायें उपस्थित हुआ हूँ। घेरी सविनय

भगवान्‌ सूर्यके पूजकके रूपमे उन्हें प्राप्त करनेके छिये प्रार्थना है कि आपत्म्रेग कृपाकर अम्बूद्वीपमें पधारें और

शाकद्वीप जायें।

अनन्तर साम्बने द्वारका जाकर अपने पिता भगवान्‌

शरीकृष्णको सब समाचार सुनाया। फिर ये उनकी आज्ञा

प्रापक गरुड़पर सवार हो शीघ्र ही शाकद्वीप पहुँच गये । वहाँ

जाकर उन्होंने अतिशय तेजस्वी महात्मा मगोंको सूर्य-

भगवान्की आगाधनामें संलग्न देखा। साम्बने उन्हें सादर

प्रणामकर उनकी प्रदक्षिणा की।

साम्बने कहा-- आपलोग धन्य हैं। आप सबका दर्शन

सबके लिये कल्याणकारी है, आप लोग सदा भगवान्‌ सूर्यकी

आयाधनामें ल हुए है । मैं भगवान्‌ श्रीकृष्णका पुत्र हूँ, मेरा

नाम साम्ब है। मैंने चन्द्रभागा नदीके तटपर सूर्यदेवकी सूर्तिकी

स्थापना की है। उनकी आज्ञाके अनुसार उनकी विधिवत्‌

आराधनाके निमित्त शाकद्रीपसे जम्बूद्ीपमें ले जानेके

भगवान्‌ सूर्यकी पुजा करें ।

मगोंने कहा-- साम्ब ! इस बातकी जानकारी भगवान्‌

सूर्यने हमें पहले हौ दे दी है।'

यह सुनकर साम्ब बहुत प्रसन्न हुए और गरुडुपर उन्हें

बैठाकर वहाँसे मित्रवन (मूलस्थान--मुल्तान) ले आये।

सूर्यभगवान्‌ पणोको वहाँ उपस्थित देखकर बहुत प्रसन्न हुए

और साम्बसे योले--'साम्ब ! अब तुम चिन्ता छोड़ दो, ये

सग मेरी विधियत्‌ पूजा सम्पन्न करेंगे।'

इस प्रकार साम्बने दाकद्रीपसे अव्यङ्ग धारण करनेवाले

मर्गो ल्थकर धन-धान्यसे परिपूर्ण इस साम्बपुरको उन्हें

समर्पित कर दिया । वे सब भगवान्‌ सूर्यकी सेवामें तत्पर हो

गये और साम्ब भी सूर्यदेव एवं मगोंक्ों प्रणामकर आनन्द-

चित्तसे दारका लैर आये! (अध्याय १३९-- १४१)

ने

अव्यङ्गका लक्षण और उसका माहात्प्य

एक वार साम्बने महर्षि व्याससे मगोंद्रार धारण किये

जानेवाछे आव्यङ्गके' विषयमे जिज्ञासा की ।

व्यासजीने कहा--साम्ब ! मैं तुम्हें अव्यड़॒के विषयनें

बताता हूँ, उसे सुनो । देवता, ऋषि, नाग, गन्धर्व, अप्सरा, यक्ष

और राक्षस ऋतु-क्रमसे भगवान्‌ सूर्यके रथके साथ रहते हैं।

यह रथ वासुकि नामक नागसे वधा रहता है। किसी समय

वासुकि नागका कंचुक (कचु ) उतरकर गिर पड़ा । नागराज

वासुकिके राीरसे उत्पन्न उस निर्मोक (केंचुल) को भगवान्‌

सूर्यने सुवर्ण ओर र्मे अलंकृतकर अपने मध्य भागमें

धारण कर लिया । इसीलिये भगवान्‌ सूर्यके भक्त अपने देवक

प्रसप्नताके लिये अव्यन्न धारण करते हैं। उसके धारण करनेसे

भोजकं पवित्र हो जाते हैं और उसपर सूर्यभगवानका अनुग्रह

भी होता है।

इस अव्यड्भकों सर्पके केंचुलकी तरह मध्यमें पोल्य

अर्थात्‌ खाली रखना चाहिये। यह एक वर्णक होना चाहिये।

कपासके सूतसे बना अव्यङ्ग दो सौ अग्गुलका उत्तम, एक सौ

बौसका मध्यम और एक सौ आठ अङ्गुलक कनिष्ठ होता है,

अतः इससे छोटा नहीं होना चाहिये। यज्ञोपवीती तरह

आखठतवें वर्षमें अव्यजड़ धारण करना चाहिये। भोजकॉके लिये

यह मुख्य संस्कार है। इसके धारण करनेसे वह सभौ

क्रियाऑका अधिकारी होता है। यह अब्यड्ड सर्वदेवमय,

सर्ववेदमय, सर्वल्लेकमय और सर्वभृतपय है। इसके मूलमें

विष्णु, मध्यमे ब्रह्म और अन्ते शाशाडरमौरिक भगवान्‌ शिव

निवास करते हैं। इसी तरह ऋग्वेद, यजुर्येद और सामवेद

क्रमशः मूल, मध्य और अग्रभागपें रहते हैं, अथर्ववेद ग्रन्थिमें

स्थित रहता है। पृथ्वी, जल, तेज, वायु, आकाश और

भूल्मरेंक, भुवर्ल्मेक तथा स्वर्लेक आदि सातो ल्मेक व्यङ्गे

निवास करते है। सूर्यभक्त भोजकको सभी समय अव्यङ्ग

धारण कर भगवान्‌ सूर्यकी उपासना करनी चाहिये।

(अध्याय १४२)

२-अद्ात्‌ समुत्फे हाव्यज्गस्तु कतः स्मृतः ॥ (ब्राह्मपर्व १४२॥ १८)

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