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* पुराणं परमं पुण्य भविष्यं सर्वसौख्यदम्‌ +

जगन्नाथ ! मैं आपका ही हूँ, आप दरीघर मुझमें निवास करें,

वायु एवं आकाशकी भांति मुझमें और आपम्‌ कोई अन्तर न

रहे। मैं आपको अपने सामने देख रहा हूँ, आप भी मुझे

देखें ।' इस प्रकार भगवान्‌ विष्णुको प्रणाम करे और उनका

दर्शन करे। जो अपने इष्टदेवका अधवा भगवान्‌ विष्णुका

ध्यानकर प्राण त्याग करता है, उसके सब पाप छूट जाते हैं

और वह भगवानमें सत्न हो जाता है। मृत्युकालमें यदि इतना

करना सम्भव न हो तो सबसे सरल उपाय यह है कि चारों

तरफसे चित्तकृति हटाकर गोविन्दका स्मरण करते हुए प्राण

त्याग करना चाहिये, क्योकि व्यक्ति जिस-जिस भावसे

स्मरण्कर प्राण त्याग करता है, उसे वही भाव प्राप्त होता है ।

अतः सब प्रकारसे निवृत्त होकर वासुदेवका स्मरण और

चिन्तन करना ही त्रेयस्कर है । इसी प्रसंगमें भगवानके

चिन्तन-ध्यानके स्वरूपपर भी प्रकादा डाला गया है। जो

साधकोके लिये अत्यन्त उपयोगी और जनने योग्य है।

महर्षि मार्कष्डेयजीके द्वारा चार प्रकारके ध्यानका

विवेचन किया गया है-- (१) राज्य, उपभोग, झयन, भोजन,

वाहने, पणि, खी, गन्ध, माल्य, वस, आभूषण आदिमे यदि

अत्यन्त मोहके कारण उसका चिन्तन-स्मरण बना रहता है तो

यह मोहजन्य "आद्य ध्यान कहा गया है। इस ध्यानसे

तिर्यक्‌-योनि तथा अधोगतिको प्राप्ति होती है। (२) दयाके

अभावमें यदि जलाने, मारने, तड़पाने, किसीके ऊपर प्रहार

करनेको इच्छा रहती हो, ऐसी क्रियाओंमें जिसका मन लगा हो,

उसे 'रौद्र' ध्यान कहा गया है। इस ध्यानसे नरक प्राप्त होता

है। (३) वेदार्थक चिन्तन, इन्द्रियके उपदामन, मोक्षकी

चिन्ता, फ्रणियोंके कल्याणकी भावना आदि करना “घर्म्य'

ध्यान है। 'धर््य' ध्यानसे स्वर्गकी अथवा दिव्यलोककी प्राप्ति

होती है। (४) समस्त इन्द्रियॉका अपने-अपने विषयोंसे निवृत्त

हो जाना,दृदयमें इष्ट-अनिष्ट--किसीका भी चिन्तन नहीं होना

और आत्पस्थित होकर एकमात्र परमेश्वरः चिन्तन करते हुए.

परमात्मनिष्ठ हो जाना--यह 'शुछ्न' ध्यानका स्वरूप है। इस

ध्यानसे पोक्षकी प्राप्ति अथवा भगवत्धाप्ति हो जाती है।

इसलिये ऐसा प्रयत्न करना चाहिये कि कल्याणकारी "शक्त

ध्यानमें ही चित्त स्थिर हो जय ।

इस प्रकरणके बाद दानकी महिमा एवं विभिन्न उत्सवॉका

यर्णन आया है। सर्वप्रथम दीपदानकी महिमामें रानी

ललिताके आख्यानका तथा वृषोत्सर्गकी महिमाका वर्णन हुआ

है। अनन्तर कन्यादानके महत्त्वपर प्रकाश डाला गया है।

आभूषणोंसे अलंकृत कन्याको अपने वर्णं और जातिमें दान

करनेकी अत्यधिक महिमा बतायी गयी है। अनाथ कन्या

विवाह करनेका भी विशेष फल कहा गया है। इस पर्वमें

घेनुदानका विद्द वर्णन प्राप्त होता है। कई प्रकारकी धेनुओंके

दानका प्रकरण आया है। प्रत्यक्ष धेनु, तिलधेनु, जलधेनु

घृतघेनु, लवण्घेनु, काञ्चनधेनु, रत्रधेनु आदिके वर्णन मिलते

हैं। इसके अतिरिक्त कपित््रदान, महिषीदान, भूमिदान,

गुडाचलदान, हेमाचलदान, तिलाचलदान, कार्पासाचलदान,

घृताचलदान, रत्ाचलदान, रौप्याचलदान तथा शर्कगाचलदान

आदि दानोंकी विधियाँ विस्तासपूर्वक निरूपित हुई है।

भारतीय संस्कृतिमे उत्सवोंका विशेष महत्व है। विभिन्न

तिधि्योपर तथा पर्वोपर विभिन्न प्रकारसे उत्सवॉकों मनाया

जाता है और सभौ उत्सवोंकी अलग-अलग महिमा भी है।

यहाँ इन उत्सवोंका भौ वर्णन हुआ है। होलिकोत्सव,

दीपमालिकोत्सव, रक्षाबन्धन, महानवमी-उत्सव, इन्द्र-

प्वजोत्सव आदि मुख्य रूपसे वर्णित हैं। होलिकोत्सवर्मो

डॉडाकी कथा पिरत है। इन उत्सवॉके अतिरिक्त कोटिहोम,

नक्षप्रहोम, गणनाथज्ञान्ति आदिके विधान भी दिये गये हैं।

भविष्यपुराणमे ब्रत और दान आदिके प्रकरणमें जो

फलश्रुतियाँ दी गयी हैं, वे मुख्यतः इहल्प्रेक तथा परल्पेकमें

दुःखोकी निवृति तथा भोगैधर्य और स्वर्ग आदि लोकोंकी

प्राप्तिसे ही सम्बन्धित हैं। सामान्यतः मनुष्यकों जीवनमें दो बातें

प्रभावित करती है-- एक तो दुःखोंका भय और दूसरा सुखा

प्रलोभन । इन दोनोंके स्मि मनुष्य कुछ भी करनेको तत्पर

रहता है। परमात्म-प्रभुमें हमारी आस्था एवं विश्वास जाग्रत्‌ हो

और हमारे सम्बन्ध भगवानसे स्थापित हों, इसके लिये अपने

खश और पुराणोंमें लौकिक तथा पारलौकिक कामनाओंकी

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