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* सात प्रकारकी प्रतिमा एवं का्न-प्रतिमाके निर्माणोपयोगी वृक्षोंके लक्षण «
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प्रसाद-निर्माणके लिये वर्णित है, वैसी ही भूमि देवप्रासादके
लिये भी प्रदास्त मानी गयी है।
सूर्यनारायणका मन्दिर पूर्वाभिमुस्व बनवाना चाहिये,
पूर्वकी ओर द्वार रखनेका स्थान न हो तो पश्चिमाभिमुख
बनवाये । परंतु मुख्य पूर्वाभिमुख ही है । स्थानकी इस प्रकारसे
कल्पना करे कि मुख्य मन्दिरसे दक्षिणकी ओर भगवान् सूर्यका
खान-गृह और उत्तकी ओर यज्ञदत्त रहे। भगवान् शिव
और मातृकाका मन्दिर उत्तराभिमुख, ब्रह्माका पश्चिम और
विष्णुकत्र उत्तर-मुख बनवाना चाहिये। भगवान् सूर्यके दाहिने
पामि निक्षुभा तथा वाये पारम राज्ञीको स्यापित्त करना
चाहिये । सूर्यन्रायणके दक्षिणभागमें पिङ्गल. वामभागमें
दष्डनायक, सम्मुख श्री और महाश्वेताकी स्थापना करनी
चाहिये । देवगृहके बाहर अश्विनीकुमारोंका स्थान बनाना
चाहिये । मन्दिरके दूसरे कक्षमें राज्ञ ओर श्रौष, तीसरे कक्षे
कल्माष और पक्षी, दक्षिणमें दण्ड और माठर, उत्तरे
स्मेकपूजित कुबेरको स्थापित करना चाहिये । कुबेरसे उत्तर
रेवन्त एवं विनायककी स्थापना करनी चाहिये या जिस दिशामें
उत्तम स्थाने हो वहींपर उनकी स्थापना करे । दाहिनी एवं बायीं
ओर अर्ध्य प्रदान करनेके लिये दो मण्डल बनवाये | उदयके
समय दक्षिण मण्डलमें और अस्तके समय वाम मण्डलमें
भगवान्को अर्घ्य दे। चक्राकार पीठके ऊपर स्नानगृहं चार
कलसे भगवान् सूर्यकी प्रतिमाकों सविधि स्नान कराये।
सायके समय शङ्ख आदि यङ्गलः याद्य बजाने चाहिये । तीसरे
मण्डलम सूर्यनारायणकी पूजा करे । सूर्यनारायणके सामने
दिण्डीकी स्थानकं (खड़ी हुई) प्रतिमा स्थापित करनी चाहिये ।
सूर्यनारायणके सम्मुख समीपमें ही सर्वदेवमय व्योमकी रचना
करनी चाहिये। मध्याह़्के समय वहाँ सूर्यको अर्य देना
चाहिये अथवा मध्याहमें अर्घ्य देनेके लिये चद्ध नामक तृतीय
मण्डल बनाये । प्रथम खान कराकर वादये अर्घ्य दे। भगवान्
सूर्यके समीप हौ उचित स्थानपर पुराणका पाठ करनेके सिव
स्थाने बनाना चाहिये। यह देवताओंके स्थापनका विधान है।
गृहराज और सर्वतोभद्र--ये दो प्रास्यद सूर्यगराययणकों
अतिदाय प्रिय हैं।
(अध्याय १३०)
सात प्रकारकी प्रतिमा एवं काष्ठ-प्रतिमाके
निर्माणोषयोगी वृक्षोंके लक्षण
नारदजी बोले--साम्ब ! अब मैं विस्तारके साथ चिल्व, खदिर, अजन, निम्ब, श्रीपर्ण (अग्निमन््थ), पनस
प्रतिपा-निर्माणका विधान बतलाता हूँ। भक्तोके कल्याणकी
अभिवृद्धिके लिये भगवान् सूर्यकी प्रतिमा सात प्रकारकी
बनायी जा सकती है । सोना, चाँदी, तापर, पाषाण, मृत्तिका,
काष्ठ तथा चित्रलिखित । इनमें क्यप्रकी प्रतिमाके निर्माणका
विधान इस प्रकार है--
नक्षत्र तथा ग्होकी अनुकूलता एवं शुभ युन देखकर
महलस्मरणपूर्वक काप्र-महण करनेके लिये वनमे जाकर
प्रतिमोपयोगी युक्षका चयन करना चाहिये। दूघवाले वृक्ष,
कमजोर युक्ष, चौराहे, देवस्थान, वल्मीक, इमशान, चैत्य,
आश्रम आदिमे लगे हुए वृक्ष तथा पुत्रक वृश्च- जिसको
किसी बिना पुत्रवाले व्यक्तिने पुत्रके रूपमें लगाया हो अथवा
बाल वृक्ष, जिसमें बहुत कोर हों, अनेक पक्षी रहते हों, दाख,
वायु, अग्रि, विजत तथा हाथी आदिसे दूषित वृक्ष, एक-दो
आखावाले वृक्ष, जिनका अप्रभाग सूख गया हो ऐसे वृक्ष
प्रतिमाके योग्य नहीं होते। महुआ, देवदार, वुक्षराज चन्दन,
(कटहल) , सरल, अर्जुन और रक्तचन्दम--ये वृक्ष प्रतिमाके
लिये उत्तम हैं। चारों वर्णोकि लिये भिन्न-भिन्न ग्राह्म काप्टोंका
विधान है।
अभिमत वृक्षके पास जाकर वृक्षकी पूजा करनी चाहिये।
पवित्र स्थान, एकान्त, केश-अद्भरशून्य, पूर्व और उत्तरकी
ओर स्थित, लोगोंको कष्ट न देनेवात्पर, विस्तृत सुन्दर
शाखाओं तथा पत्तोंसे समृद्ध, सीघा, नणशून्य तथा त्क्वावाला
वृक्ष शुभ होता है। स्वयं गिरे हुए या हाथीसे गिराये गये, शुष्क
होकर या अग्निसे जले हुए ओर पश्षियोंसे रहित वृक्षोंका
अ्तिमा-निर्माणमें उपयोग नहीं करना चाहिये। मधुमक्खीके
छातेवाला यृक्ष भी गह्य नहीं है। लिग्ध पत्र-समन्वित, पुष्पित
तथा फलिते वृक्षोका कार्तिक आदि आठ मासॉमें उत्तम घुहूर्त
देखकर उपवास रहकर अधिवासन-कर्म करना चाहिये ।
वुक्षके नीचे चारों ओर लौपकर गन्ध, पुष्पसाल्थ, धूप आदिसे
यथाविधि वृक्षकी पूजा करे । अनन्तर गायत्रीमनत्रसे अभिमन्त्रित