+ “भविष्यपुराण --एक पर्चिय *
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आदिकी परम्परा बनी है, यह परलोकमे उन्हीं कमेकि द्वारा
सुख भोगता है। चत तथा स्वाध्याय न करनेवालेकी कहीं भी
गति नहीं है। इसके विपरीत ब्रत-स्वाघ्याय करनेवाले पुरुष
सदा मुखी रहते हैं। इसलिये ब्रत-स्वाध्याय अवदय करना
चाहिये।
इस पर्यमे अनेक ब्रतोंकी कथा, माहात्म्य, विधान तथा
फलश्रुतियोंका वर्णन किया गया है। साथ ही ब्तोके
उच्चापनकी विधि भी बतायी गयी है। एक-एक तिथियोंमें कई
ब्रतोंका विधान है। जैसे प्रतिपदा तिथिमें तिरूकत्रत,
अशोकत्रत, कोकिलात्रत, बृहत्तपोत्रत आदिका वर्णन हुआ
है। इसी प्रकार जातिस्मर भद्रतरत, यमद्वितीया, मघूकतृतीया,
उमामहेशचस्रत, सौभाग्यशायन, अनन्ततृतीया, रसकल्याणिनी
तृतीयात्रत तथा अक्षयतृतीया आदि अनेक व्रत तृतीया तिथधिमें
हो वर्णित है । इसी प्रकार गणेशचतुर्थी, श्रीपञ्चमीवत-कथा,
विदोक-यष्री, कमलयप्ठी, मन्दार-षष्ठी, विजया-सप्तमी,
शुभ-सप्तमी तथा अचला-सप्तमी आदि अनेक सप्तमी-ब्रतोॉका
वर्णन हुआ है । तदनन्तर बुधाष्टमी, श्रीकृष्णजन्माष्टमी, दूर्वांकी
उत्पत्ति एवं दूर्वाष्टमी, अनघाष्टमी, श्रीवुक्षन्वमी, ध्वजनवमी,
आशादशमी आदि ्र्तोका निरूपण हुआ है । द्वादशी तिथिमें
तारकद्रादशी, अरण्यद्वादशी, गोवत्सद्रादकै, देवशयनी एवै
देवोत्थानी दादी, नीराजनद्रादक्षी, मल्लद्रादक्ी,
चिजय-श्रकणद्धाददी, गोविन्दद्रादङी, अखष्डद्रादज्ञी,
घरणीवत (वाराहद्रादशै), विज्ञोकद्गादशी, विभूतिद्वादह्षी,
मदनद्वादशी आदि अनेक द्वादशी-ब्रतोंका निरूपण हुआ है।
अयोदशी तिथिके अन्तर्गत अवाधकवत, दोौर्भाग्य-
दौरगन््यनाशकवत, घर्मगज़का समाराघन-ब्रत (यमादर्शन-
ऋयेदशी), अनङ्गत्रयोदशीत्रतका विधान और उसके फलके
वर्णन लिखे हैं। चतुर्दशी तिथिमें पालीत्रत एव रम्भा-
(कदली-) व्रत, शिवचतुर्दशीतरतपे महर्षि अङ्गिका
आख्यान, अनन्त-चतुर्दशीत्रत, श्रवणिका-व्रत, नक्ततत,
फलत्याग-चतुर्दीव्रत आदि विभिन्न ब्रतोंका निरूपण हुआ
है। तदनन्तर अमावास्थामें श्राद्ध-तर्पणकी महिमाका वर्णन,
पूर्णमासी -बतोका वर्णन, जिसमें यैदासवी, कार्तिकी और माधी
पूर्णिमाकी विदो महिमाका वर्णन, सावित्ीत्रत-कथा,
कृतिका-श्रतके प्रसणमे रानी कलिंगभद्राका आख्यान,
मनोरम-पूर्णिमा तथा अश्ञोक-पूर्णिमाकी व्रत-विधि आदि
विधिन्न ब्रतों और आख्यानोका वर्णन किया गया है ।
तिथियोंके ब्रतोकि निरूपणके अनन्तर नक्षत्रों और
मासोंके ब्रतकथाओंका वर्णन हुआ है। अनन्तत्रत-माहात्पमें
कार्तवीर्यके आविर्भावका वृत्तान्त आया है। मास-नक्षक्नतके
माहारप्यमें साम्ण्शयणीकी कथा, प्रायक्षित्तकप सम्पूर्ण तका
विधान, वुन्ताक (बैगन)-त्यागब्रत एवं प्रह-नक्षत्रत्षतकी
विधि, शनैश्लखतमें महामुनि पैप्पल्मदका आख्यान,
संक्रान्तित्रतके उच्यापनकी विधि, धद्रा (विष्टि) -्रत तथा
भद्राके आविर्भावकी कथा, चन्द्र, शुक्र तथा युहस्पतिको अर््य
देनेकी विधि आदिके वर्णन हुए हैं। इस पर्वके १२१ वें
अध्यायमें विविध प्रकीर्ण ब्रतके अन्तर्गत प्रायः ८५ व्रतौका
उल्लेख आता है, तदनन्तर माघ-स््रानका विधान, स्नान,
तर्पणविधि, रुद्र-स्रानकी विधि, सूर्य-चन्द्र-ग्रहणमें स्रानका
महात्म्य आदिके वर्णन प्राप्त होते हैं।
घृत्युसे पूर्व अर्थात् मरणासन्न गृहस्य पुरुषको शरीरका
त्याग किस प्रकार करना चाहिये, इसका बड़ा ही सुन्दर
विवेचन यहाँ १२६ वें अध्यायमें हुआ है। जब पुरुषको यह
मालूम हो कि मृत्यु समीप आ गयी है तो उसे सब ओरसे मन
हटाकर गरुडध्वज भगवान् विष्णुका अधवा अपने इष्टदेवका
स्मरण करना चाहिये । खनसे पवित्र होकर श्वेत वस्त्र धारण
करके सभी उपचारौसे नारायणकी पूजाकर स्तोत्रोंसे स्तुति को ।
अपनी शक्तिके अनुसार गाय, भूमि, सुवर्ण, वस्त्र, अन्न
आदिकः दान करे और बन्धु. पुत्र, मित्र, खी, क्षेत्र, धनधान्य
तथा पशु आदिसे चित्र हटाकर ममस्वका सर्यथा परित्याग कर
दे। मित्र, कात्र, उदासीन, अपने और पराये त्त्रेगोंके उपकार
और अफ्कारके विषयमें विचार न करता हुआ अपने मनको
पूर्ण न्त कर ल । जगदुरु भगवान् विष्णुके अतिरिक्त मेरा
कोई बन्धु नहीं है, इस प्रकार सब कुछ छोड़कर सर्वेखर
भगवान् अच्युतको हृदयमें धारण करके निरन्तर वासुदेवके
नायक स्परण-कीर्तन करता रहे और जब मृत्यु अत्यन्त समीप
आ जाय तो दक्षिणाप्र कुडा बिछाकर पूर्व अथवा उत्तरकी ओर
सिस्कर शयन करे और परमात्म-प्रभुसे यह प्रार्थना करे कि "रे