Home
← पिछला
अगला →

ऋह्मपर्य ]

* दैवस्वलके लक्षण और सूर्यनारायणकी परिपा +

१२७

आदिका भो भय उसे नहीं रहता । सूर्यनागयणके भक्तके लिये

दुष्ट भी अनुकूल हो जाते हैं और सब ग्रह सौम्य दृष्टि रखते

है । जिसपर सूर्यदेव संतुष्ट हो जाते हैं, वह देखताओंका भी

पूज्य हो जाता है । परंतु भगवान्‌ सूर्यका अनु्रह उसी पुरुषपर

होता है, जो सब जीवौक्ये अपने समान ही समझता है और

भक्तिपूर्वक उनकी आगाघना करता है। प्रजाओंके स्वामी

भगवान्‌ सूर्यके प्रसन्न हो जानेपर मनुष्य पूर्णमनोरथ हो

जाता है'।

भगवान्‌ किष्णुने पूछा--ब्रह्मनू! जिन्होंने पहले

भगवान्‌ सूर्यकी आराधना नहीं की और रोग-व्याधिसे दुःखी

हो गये हैं, वे उन कष्ट एवं पापोंसे कैसे मुक्त हों, कृपाकर

बताये । हम भी भक्तिपूर्वक भगवान्‌ सूर्यकी आराधना करना

|

के बोले-- भगवन्‌ ! यदि आप भगवान्‌ सूर्यकी

आराधना करना चाहते हैं तो आप पहले वैवस्वत (सूर्यधक्त)

बनें, क्योकि बिना विधिपूर्वक सौरी दीक्षाके उनकी उपासना

पूरी नहीं हो सकती । जव मनुष्योंके पाप क्षोण होने लगते हैं

तब भगवान्‌ सूर्य और ब्राह्मणोमिं उनकौ नैष्ठिकी श्रद्धा-भक्ति

होती है। इस संसार-चक्रमें भ्रमण करते हुए प्राणियोंके लिये

भगवान्‌ सूर्यको प्रसन्न करना एकमात्र कल्याणका निष्कण्टक

घार्ग है।

विष्णुभगवानने पूछा--ब्रह्मन्‌ ! चैवस्व्तोका क्या

लक्षण है और उन्हें क्या करना चाहिये ? यह आप वताय ।

ब्रह्माजी बोले -- वैवस्वत वही है जो भगवाम्‌ सूर्यका

परम भक्त हो तथा मन, वाणी एवं कर्मसे कभी जीवहिसा न

कर ब्राह्मण, देवता और भोजकको नित्य प्रणाम कर, दूरके

श्रनका हरण न करे, सभी देवताओं एवं संसारकों भगवान्‌

सूर्यका हो स्वरूप समझे और उनसे अपनेको अभिन्न समझे |

देवता, मनुष्य, पशु-पक्षी, पिपीलिका, वृक्ष, पाषाण, काष्ट,

भूमि, जल, आकादा तथा दिशा--सर्वत्र भगवान्‌ सूर्यको

व्याप्त समझे, साथ ही स्वयंको भी सूर्यसे भिन्न न समझे । जो

किसी भी प्राणीमें दुषट-भाव नहीं रखता, वही वैवस्वत

सूर्योपासक है। जो पुरुष आसक्तिरहित होकर निष्काम-भावसे

भक्तिपूर्वक भगवान्‌ सूर्यके निमित्त क्रियाएँ करता है, वह

लैवस्वत कहल्ञाता है । जिसका न तो कोई शत्रु ये और न कोई

मित्र हो तथा न उसमें भेद-बुद्धि हो, सबको बराबर देखता हो,

ऐसा पुरुष वैवस्वत कहलाता है। जिस उत्तम गतिको वैवस्वत

पुरुष प्राप्त करता है, यह योगी और बड़े-बड़े तपस्वियोंकि लिये

भी दुर्लभ है। जो सभी प्रकारसे भगयान्‌ सूर्यका दृढ़ भक्त है,

वह धन्य है। भक्तिपूर्वक आराधना करनेसे ही सूर्यभगयान्का

अनुग्रह पराप ह्येता है।

ब्रह्माजी पुनः बोले--मैं भी उनके दक्षिण किरणसे

उत्पन्न हुआ हूँ और उन्होंके काप किरणसे भगवान्‌ शिव तथा

वक्ष-स्थलसे शृद्ख -चक्र-गदाधारी आप उत्पन्न हैं। उन्होंको

इच्छासे आप सृष्टिका पालन तथा शङ्कर संहार करते हैं। इसी

प्रकार रुदर, इनदर, चर, वण, वायु, अभि आदि सब देखता

सूर्यदेवसे हो प्रादुर्भूत हुए हैं और उनकी आज्ञाके अनुसार

अपने-अपने करमपि प्रवृत्त हो रहे हैं। इसलिये भगवन्‌ | आप

भी सूर्यभगवानकी आराधना करें, इससे सभो मनोरथ

पूर्ण छोंगे।

पितामह ब्रह्माजी एवं विष्णुभगवानके इस संवादको जो

भक्तिपूर्वक श्रवण करता है, वह मनवाच्छित फल्मेंकों प्राप्त

कर अन्तम सुवर्णके विमान बैठकर सूर्यस्प्रेककों जाता है ।

(अध्याय १२०)

-----~---

१-कलोपवारैरैरभानर्नन्य जन्मनि

धतज्छलति ते यम्‌ । रक्षन्ति सकलापत्सु येत धेतधिपोऽर्चितः #

जहा देखशादूँल . अहरोगटिभागिनः ॥

(ऋह्मप्वं १२० | ४-- १२)

← पिछला
अगला →