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ज्राह्मपर्व ]

* भ्र ब्राह्मणकी कथा एवं कार्तिक पासे सूर्य-मन्दिर्में दीपदानका फाल +

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दक्षिणा देकर उन्हें संतुए्ठ किया। वे विविध उपचारोंसे

भक्तिपूर्यवक नित्य सूर्यदेवकी पूजा-उपासना करने गे और

अत्तमें उन दोनॉने उनकी प्रीति प्राप्त कर उत्तम गति प्राप्त की ।

(अध्याय ११७)

भद्र ब्राह्मणकी कथा एवं कार्तिक मासमें सूर्य-मन्दिरमें दीपदानका फल

ब्रह्माजी बोरे--विष्णों ! जो कार्तिक मौसमें सूर्यदेवके

मन्दिरमे दीप प्रज्वलित करता है, उसे सम्पूर्ण यज्ञोका फल

प्राप्त होता है एवं वह तेजमें सूर्यके समान तेजस्वी होता है।

अब मैं आपको भद्र ब्राह्मणकी कथा सुनाता है, जो समस्त

पापोंका नाश करनेवाली है, उसे आप सुनें--

प्राचीन कारये माहिष्पती नामकी एक सुन्दर नगरीमें

नागझर्मा नामको एक ब्राह्मण रहता था। भगवान्‌ सूर्यकी

प्रसश्नतासे उसके सौ पुत्र हुए। सबसे छोटे पुत्रका नाप था

भद्र। वह सभी भाइयोमें अत्यन्त विचक्षण विद्वान्‌ था। वह

. भगवान्‌ सूर्यके मन्दिरमे नित्य दीपकं ज्या करता था। एक

दिन उसके भाइयोने उससे बड़े आदरसे पूछा--“भद्र !

हमत्मेग देखते हैं कि तुम भगवान्‌ सूर्यको न तो कभी पुष्प,

धूप, नैवेद्य आदि अर्पण करते हो और न कभी ब्राह्मण-भोजन

कराते हो, केवल दिन-रात मन्दिर्में जाकर दीप जलाते रहते

हो, इसमें क्या कारण है ? तुम हमें बताओ ।' अपने भाइयॉंकी

ऋते सुनकर भद्र योत्त्र-- प्रातृगण ! इस विषयमे आपत्लेग

एक आख्यान सुर्नें--

प्राचीन कालमें राजा इक्ष्वाकुके पुरोहित महर्षि वसिष्ठ

थे। उन्होंने राजा इक्ष्वाकुसे सरयू-तटपर सूर्यभगवानका एक

मन्दिर बनवाया । वे वहाँ नित्य गन्-पुष्पादि उपचारोसे

भत्तिपूर्वक भगवान्‌ सूर्यकी पूजा करते और दीपक प्रज्वलित

करते थे। विज्षेषकर कार्तिक मासमें भक्तिपुर्वक दीपोत्सव

किया करते थे। तब मैं भी अनेक कुष्ठ आदि योगसे पीड़ित

हो उसी मन्दिरके समीप पड़ा रहता और जो कुछ मिल जाता,

उसीसे अपना पेट भरता। वहाँके निवासी मुझे रोगी और

दीन-हीन जानकर मुझे भोजन दे देते थे। एक दिन मुझमें यह

कुत्सित विचार आया कि मै रात्रिके अन्धकारे हस मन्दिरे

स्थित सूर्यनागायणके बहुमूल्य आभूषणोंकों चुरा रूँ। ऐसा

निश्चयकर मैं उन भोजक्मोंकी निद्राकी प्रतीक करने लगा | जब

वे भोजक सो गये, तब मैं धीरे-धीरे मन्दिरमे गया और वहाँ

देखा कि दीपक लुञ्च चुका है। तब मैंने अग्नि जलाकर दीपक

प्रज्वलित किया और उसमें धृत डालकर प्रतिमासे आभूषण

उतारने लगा, उसी समय ये देवपुत्र भोजक जग गये और मुझे

हाथमें दीपक लिया देखकर पकड़ लिया। मैं भयभीत हो

बिलापकर उनके चरणोपर गिर पड़ा। दयावश उल्होंनि मुझे

छोड़ दिया, कितु वहाँ मते हुए राजपुरुोने मुझे फिर बाँध

लिया और ये मुझसे पूछने लगे--'ओरे दुष्ट ! तुम दीपक

हाथमें लेकर मन्दिरमे क्या कर रहे थे ? जल्दी बताओ, मै

अत्यन्त भयभीत हो गया। उन ग़जपुरुषोंके भयसे तथा रोगसे

आक्रान्त होनेके कारण मन्दिरमे ही मेरे प्राण निकल गये । उसी

समय सूर्यभगवानके गण मुझे विमानमें बैठाकर सूर्यत्मेक ले

गये और मैंने एक कल्पतक वहाँ सुख भोगा और फिर उत्तम

कुलमें जन्म लेकर आप सवका भाई बना। बचुओ ! यह

कार्तिक मासम भगवान्‌ सूर्यके मच्दिर्में दीफफ जलानेका फल

है। यद्यपि मैने दुषटबुद्धिसे आभूषण चुरानेकी दृष्टिसे मन्दिरमे

दीपक जक्छाया था तथापि उसीके फलस्वरूप इस उत्तम

ब्राह्मणकुलमें मेरा जन्म हुआ तथा बेद-शास्त्रोंका मैने अध्ययन

किया और मुझे पूर्वजन्मोंकी स्मृति हुई । इस प्रकार उत्तम फल

मुझे प्राप्त हुआ । दुष्टबुद्धिसे भी घीड़ास दीपक जलानेका ऐसा

श्रेष्ठ फल देखकर चै अब नित्य भगवान्‌ सूर्यके मच्दिर्में दीपक

अज्यल्तित करता रहता हूँ। भाइयो ! मैंने कार्तिक मासमें यह

दीपदानका संक्षेपमें माहात्म्य आपलोगॉको सुनाया।

इतनी कथा सुनाकर ब्रह्माजी बोछे--विष्णो ! दीपक

जत्मनेका फल भट्नने अपने भाइयॉकों बताया। जो पुरुष

सूर्यके नामोंका जप करता हुआ मन्दिरमें कार्तिकके महीनेमें

दीपदान करता है, वह आरोग्य, धन-सम्पत्ति, बुद्धि, उत्तम

संतान और जातिस्मरत्वको प्राप्त करता है। षष्ठौ और सप्तमी

तिथिक्ा जो प्रयत्रपूर्वक सूर्यमन्दिस्में दीपदान करता है, वह

उत्तम विमानमें बैठकर सूर्यत्थ्रेकको जाता है। इसलिये

भगवान्‌ सूर्यके मन्दिरमे भक्तिपूर्वक दीप प्रज्वलित करना

चाहिये । प्रज्वलित दीपको न तो बुझाये और न उसका हरण

करे । दीपक हरण करनेवाला पुरुष अन्धमृषक होता है । इस

कारण कल्याणकी इच्छावात्म पुरुष दीप प्रज्वलित करे, हरे

नहीं। (अध्याय ११८)

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