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* पुराणै परमै पुण्यं भविष्य सर्वसौख्यटम «

पशु आदि योनिर्योमिं जन्म होता है । धर्म ओर अधर्मके

जिश्चयमें श्रुति ही प्रमाण है । पापसे पापयोनि और पुण्यसे

पुष्ययोनि प्राप्त होती है" । वस्तुतः संसारमें कोई सुखी नहीं है ।

प्रत्येक प्राणीको एक दूसरेसे भय वना रहता है । यह कर्ममय

शारीर जअसे लेकर अन्ततक दुःखी ही है। जो पुरुष जितेन्द्रिय

हैं और तरत, दान तथा उपवास आदि तत्पर रहते हैं, वे ही

सदा सुखी रहते हैं। तदनन्तर यहाँ भगवान्‌ श्रीकृष्णके द्वारा

विविध प्रकारके पाप एवं पुष्य कमॉंका फल बताया गया

है। अधम कर्मकों ही पाप और अधरम कहते हैं। स्थूल,

सूक्ष्म, अतिसूक्ष्म आदि भरेदोंद्रारा करोड़ों प्रकारके पाप हैं, पर

यहाँ बड़े-बड़े पापोंका संक्षेपे वर्णान किया गया है। परस्नीका

चिन्तन, दूसरेका अनिष्ट-चिन्तन और अकार्य (कुकर्म) में

अभिनिवेश--ये तीन प्रकारके मानस पाप हैं। अनियन्त्रित

प्रलाप, अग्रिय, असत्य, परनिन्दा और पिशुनता अर्थात्‌

चुगली--ये पाँच वाचिक पाप हैं। अभक्ष्यभक्षण, हिंसा,

प्रिध्या कामसेवन (असंयमित जीवन व्यतीत करना) और

फरधन-हरण--ये चार कथिक पाप हैं। इन बारह ककि

करनेसे नरककी प्राप्ति होती है। इसके साथ ही जो पुरुष

संसाररूपी सागरसे उद्धर करनेवाले भगवान्‌ सदाधिय अथवा

भगवान्‌ विष्णुसे द्वेष रखते है, ये घोर नरके पड़ते हैं।

ब्रह्महत्या, सुरापान, सुयर्णकी चोरी और गुरुपन्रीगमन--ये

चार महापातक है । इन पात्तकोको करनेवालेकि सम्पर्कमें

रहनेयाल्त्र पाँचयाँ महापातकी गिना जाता है ¦ ये सभी नरकमें

जाते हैं। इनके अतिरिक्त कई प्रकारके उपपातकोक् भी वर्णन

आया है । जिनका फल दुःख और नरकगमन ही है ।

इसलिये बुद्धिमान्‌ मनुष्य दारीरकों नश्वर जानकर

छेझमात्र भी पाप न करें, पापसे अवय ही नरक भोगना

पड़ता है। पापका फल दुःख है और नरकसे बढ़कर अधिक

दुःख कहीं नहीं है। पपी मनुष्य नरकासके अनन्तर फिर

पृथ्वीपर युश आदि अनेक प्रकारक स्थायर-योनियोमें जन्म

प्रहण करते हैं और अनेक कष्ट भोगते हैं। अनन्तर कैट,

पतंग, पक्षी, पशु आटि अनेक योनियोमें जन्म लेते हुए

१-शुपैदेवलवमाप्रोति. मिम्रैमतुषतां.. अजेद्‌। असुः

अतिदुर्लभ मनुष्य-जन्म पाते हैं। स्वर्ग एवं मोक्ष देनेवाल

मनुष्य-जत्म पाकर ऐसा कर्म करना चाहिये, जिससे नरक न

देखना पड़े। यह मनुष्य-योनि देवताओं तथा अस्‌रोंके लिये

भी अत्यन्त दुर्लभ है। धर्मसे ही मनुष्यका जन्म मिलता है।

मनुष्य-जन्म पाकर ठसे धर्मकी वुद्धि करनी चाहिये । जो अपने

कल्याणके लिये धर्मका पालन नहीं करता है, उसके समान

मूर्ख कौन होगा ?

यह देश सभी देशप उत्तम है। बहुत पुष्यसे प्राणीका

जन्म भारतवर्षमें छेता है । इस देम जन्म फाकर जो अपने

कल्याणके लिये सत्कर्म करता है वरी बुद्धिमान्‌ है । जिसने

ऐसा नहीं किया, उसने अपने आत्पाके साथ वच्चना की ।

जबतक यह दचारीर स्वस्थ है, त्यतक जो कुछ पुण्य बन सके,

कर लेना चाहिये, बादमें कुछ भी नहीं हो सकता । दिन-गतके

बहाने नित्य आयुके ही अदा खण्डित हो रहे हैं। फिर भी

मनुष्योको ऋध नहीं होता कि एक दिन मृत्यु आ पहुंचेगी और

इन सभी सामप्रियोंको छोड़कर अकेले चत्प जाना पड़ेगा।

फिर अपने हाथसे ही अपनी सम्पत्ति सत्पात्रोंकों क्यों नहीं बि

देते ? मनुष्यके लिये दान ही पाथेय अर्थात्‌ रास्तेके यि

भोजन है। जो दान करते हैं वे सुखपूर्वक जाते हैं। दान-हीन

मार्गमें अनेक दुःख पाते है । भूखे मरते जाते हैं, इन सब

बातोंकों विचारकर पुण्य कर्म ही करना चाहिये। पुण्य कमोंसे

देवत्व प्राप्त होता है और पाप करनेसे नस्ककी प्राप्ति होती है।

जो सत्पुरुष सर्वोत्मभावसे औ्रोपस्मात्म-प्रभुकी दरणमें जाते है,

वे पद्मपत्रपर स्थित जलको तरह पापोंसे लिप्त नहीं होते,

इसलिये इन्द्रसे छूटकर भक्तिपूर्वक ईश्वरको आराघना करनी

चाहिये तथा सभी प्रकारके पापोंसे निरन्तर बचना चाहिये।

भगवान्‌ श्रीकृष्ण युधिष्टिससे कहते हैं कि यहां भीषण

नस्कॉंका जो वर्णन किया गया है, उन्हें ब्रत-उपवासरूपी

नौकासे पार किया जा सकता है। प्राणीको अति दुर्लभ

मनुष्य-जन्म प्वकर ऐसा कर्म करना चाहिये, जिससे पश्चात्ताप

न करना पड़े और यह जन्म भी व्यर्थ न जाय और फिर जनप

भी न लेना पड़े। जिस मनुष्य्की कीर्ति, दान, त, उपवास

जायते

कर्मीपर्ज'तुस्ति्यस्पोतिषु

परमो श्रुतिरेवाप्र पर्मापर्मविनिक्षये । पापं पेन भति पुण्यं पुष्येन कर्मणा ॥ (उत्तरपर्व ४ । ६-७)

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