खाह्मपर्य ]
+ सूर्यभब्दिर-निर्माणका फल +
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बतायें। ब्रह्मन् ! श्रेष्ठ कुलमें जन्य, आरोग्य और दुर्लभ
धनकी अभिवृद्धि--ये तीनों जिसके द्वारा प्राप्त होते हैं, उस
त्रिप्राप्ति-अतको भी हमें बतायें।
ब्रह्माजी बोले--माघ मासमें कृष्ण पक्षकी सामीके
दिन हस्त नक्षत्रका योग रहनेपर त्रतीको चाहिये कि यह
जगत्स्रष्टा सूर्यदेवकी सुगन्ध, धूप, नैवेद्य एवं उपहार आदि
पूजन-सामग्रियोंके द्वारा पूजा करे । गृहस्थ पुरुष पुष्पोंके द्वारा
दानादि-युक्त पूजा वर्षपर्यत्त सम्पन्न करे और वज्र (बाजरा),
तिल, ब्रीहि, यव, सुवर्ण, यव, अन्न, जल, ओला (ओलेका
पानी), उपानह, छत्र और गुड़से बने पदार्थ, (क्रमसे
प्रतिमास) मुनियों, ब्राह्मणोंकों दान देना चाहिये। इस ब्रतमें
आत्मशुद्धिके लिये सूर्यनारायणकी पूजा करके प्रतिमास
क्रमश: इक, गोमूत्र, जल, घृत, दुर्खा, दधि, घान्य, तिल,
यव, सूर्यकिरणोंसे तपा हुआ जल, कमलगट्टा और दूघका
परादान करना चाहिये। इस विधिसे इस सप्रमी-व्रतको
करनेवाल्म मनुष्य धन-घान्यसे परिपूर्ण, लक्ष्मीयुक्त तथा
समस्त दुःखोंसे रहित होता है और श्रेष्ठ कुलमें जन्म लेकर
जितेदिय, नींगेग, युद्धिमानू और सुखी रहता है। अतः
आप भी बिना प्रमाद किये ही इन प्रभासम्पत्र स्वामी
भगवान् दिवाकरकी आराधना कर कामनाओंके सपर्ण
फलूको प्राप्त करें।
(अध्याय ६१२)
सूर्यमन्दिर-निर्माणका फल तथा यमराजका अपने दूतोंको सूर्यभक्तोंसे
दूर रहनेका आदेश, घृत तथा दूधसे अभिषेकका फल
ख्रद्माजीनी कहा--हे वासुदेव ! जो मनुष्य मिट्टी,
कटी अथवा पत्थरसे भगवान् सूर्यके मन्दिस्का निर्माण
करयाता है, वह प्रतिदिन किये गये यज्ञके फलकी प्राप्त करता
है। भगवान् सूर्यनारायणका मन्दिर बनवानेपर वह अपने
कुलकी सौ आगे और सौ पीछेकी पीढ़ियोंको सूर्यलोक प्राप्त
करा देता है। सूर्यदेवके मन्दिरका निर्माण-कार्य प्रारम्भ करते
ही सात जन्मोंपें किया गया जो थोड़ा अथवा यहुत पाप है,
यह नष्ट हो जाता है। मन्दिरमे सूर्यकी मूर्तिको स्थापित कर
मनुष्य कृतकृत्य हो जाता है और उसे दोष-फलकी प्राप्ति नहीं
लेती तथा अपने आगे और पीछेके कुल्मेंका उद्धार कर देता
है। इस विषयमे प्रजाओंको अनुशासित करनेवाले यमने
पाशदण्डसे युक्त अपने किकरोंसे पहले ही कहा है कि "येरे इस
आदेशका यथोचित पालन करते हुए तुपत्थेग संसारमें विचरण
करो, कोई भी प्राणी तुमलोगोंकी आज्ञाका उल्लङ्न नहीं कर
सकेगा । संसारके मूलभूत भगवान् सूर्यकी उपासना करनेवाले
ल्त्रेगॉंको तुमलोग छोड़ देना, क्योंकि उनके लिये यहाौपर स्थान
नहीं है। संसारम जो सूर्यभक्त हैं और जिनका हदय उन्हींमे
लगा हुआ है, ऐसे लोग जो सूर्यकी सदा पूजा किया करते हैं,
उन्हें दूरसे ही छोड़ देना। बैठते-सोते, चल्तते-उठते और
गिरते-पड़ते जो मनुष्य भगवान् सूर्यदेक्का नाम-संकीर्तन
करता है, यह भी हमारे लिये बहुत दूरसे ही त्याज्य है। जो
भगवान् भास्करके लिये नित्य-नैमित्तिक यज्ञ करते हैं, उन्हें
तुमल्तरेग दृष्टि उठाकर भी मत देख । यदि तुमत्तरेण ऐसा
करोगे तो तुमल्मेगोंकी गति रुक जायगी । जो पुष्प-घूप-
सुगन्ध और सुन्दर-सुन्दर वश्येकि द्रा उनकी पूजा करते है,
उन्हें भी तुमछोग मत पकड़ना, क्योकि वे मेरे पिताके मित्र या
आश्रितजन हैं। सूर्यनारायणके मन्दिरमें ठपलेपन तथा सफाई
करनेवाले जो लोग हैं, उनके भी कुलकौ तीन पीढ़ियोंकों छोड़
देवा। जिसने सूर्य-मन्दिरका निर्माण कराया है, उसके कुलमें
उत्पन्न हुआ पुर्व भी तुमस्मेगोंके द्वारा बुरी दृष्टिसे देखने योग्य
नहीं है। जिन भगवद्धक्तोने मेरे पिताकी सुन्दर अर्चना
की है, उन मनुष्योंकों तथा उनके कुलको भी तुम सदा दूरसे
ही त्याग देना।'
महात्मा धर्मराज यमके द्वारा ऐसा आदेश दिये जानेपर भी
एक बार (भूलसे) यप-किकर उनके आदेशका उल्ल्फ्रून
करके राजा सप्राजितके पास चले गये। परैतु उस सूर्यभक्त
सं्राजित्के तेजसे ले सभी यमके सेवक मूच्छिति होकर
पृथ्वीपर वैसे हौ गिर पड़े, जैसे मूच्छित पक्षी पर्वतपरसे
भूमिपर गिर पड़ता है। इस प्रकार जो भक्त भगवान् सूर्यके
मन्दिरका निर्माण करता-कराता है, वह समस्त यज्ञॉंको सम्पन्न
कर लेता है, क्योंकि भगवान् सूर्य स्वयं ही सम्पूर्ण यज्ञमय हैं ।
ब्रह्माजी बोले--सूर्यकी प्रतिष्ठित प्रतिमाको जो घीसे