Home
← पिछला
अगला →

ज़ाहापर्व ]

» सूर्यपटद्कय-त्रत, सर्वाप्ति-सप्तमी एवं मार्तण्ड-सपतमीकी विधि «

११७

है तथा वहां जाश्वती झान्तिकों प्राप्त करता है। वहाँसे पुनः

पृथ्वोपर जन्म लेकर उन गोपति सूर्यभगवानकों हो कृपासे

प्रतापी राजा होता है।

इसी प्रकार उत्तरायणके सूर्यमें शुक्ल पक्षमें भग, अर्यमा,

सूर्य आदिके नक्षत्रोंके पड़नेपर दान-मानसे भगवान्‌ सूर्यकी

पूजा कर उन्हें प्रसन्न करना चाहिये। इससे सम्पूर्ण पाप नष्ट हो

जाते हैं। इसे पापनाशिनी सप्तमी कहा जाता है।

(अध्याय १०५-१०६)

सूर्यपद्दय-ब्रत, सवप्नि-सप्तमी एवं मार्तण्ड-सप्तमीकी विधि

ब्रह्माजी बोले--धर्मज्ञ ! अब मैं जगद्धाता देवदेवेश्वर

भगवान्‌ सूर्यनारायणके पदद्गय-माहात्प्यका वर्णन करता हूँ,

अपने दोनों पादोंक्रो एक पादपीठपर रखा है। उनके

वामपादको उत्ततयण और दक्षिणपादकों दक्षिणायनके रूपमें

जानना चाहिये। सभी इन्द्र आदि देवगण इनके चरणोंकी

वन्दना करते रहते है । हम और आप सूर्यदेवके दक्षिणपादकी

अर्चना करते हैं। विष्णु तथा शङ्कुर श्रद्धापूर्वक उनके

वामपादकी पूजा करते हैं। जो मानव प्रत्येक सप्तमीको भगवान्‌

सूर्यदेवक्म विधिवत्‌ आराधना करता है, उसपर वे सदा संतुष्ट

रहते हैं।

भगवान्‌ विष्णुने पूछा--गोल्क्रेक-स्वामी सूर्य-

नारायणकी आराधना किस प्रकार क्ये जाती है ? उसका आप

वर्णन करें ।

ब्रह्माजी बोले--उत्तरायण प्रारम्भ होनेके दिन स्नान

करके संयमित मनसे घृत-दुग्ध आदि पदार्थोके द्वार भगवान्‌

सूर्यको स्नान कराना चाहिये । सुन्दर वस्बोपहार, पुष्प-धूप तथा

अनुलेपनादिसे उनकी विधिवत्‌ पूजा कर ब्राह्मणॉको भोजन

और दक्षिणादिसे संतुष्ट करना चाहिये । उसके बाद सूर्यभक्ति-

परायणा य्यक्तिको उनके फदद्वय-ब्रतका विधान ग्रहण करना

चाहिये । तदनन्तर स्यान करके "चित्रभानु दिवाकरकी वन्दना

करनी चाहिये । खाते-चलते, सोते-जागते, प्रणाम करते, हवन

और पूजन करते समय भगवान्‌ चित्रभानुका ही जप करते हुए

प्रतिदिन उनके नाम -कीर्तनका ही तबतक जप करना चाहिये,

जबतक दक्षिणायन्का समय न आ जाय । उनको प्रार्थना इस

प्रकार करनी चाहिये--

परमात्ममय॑ ब्राह्म चित्रभानुमयं परम्‌ ।

यमन्ते संस्पण्ष्यामि स मे भानुः पररा गतिः॥

(अध्याय १९५ । १७}

"चित्रभानु परमात्ममय परम ब्रह्म हैं, जिनका अन्तकालमें

मैं भलीभाँति स्मरण करूँगा, क्योकि वे ही सूर्यनारायण पेरो

परम गति है।'

इस प्रकार स्तुति करके षाण्मासिक भगवान्‌ सूर्यके वतको

तबतक करना चाहिये, जबक्तक दक्षिणायन पूर्ण रूपसे न आ

जाय। उसके पश्चात्‌ यथाशाक्ति ब्राह्मणोंको भोजन कराकर

भगवान्‌ मार्तण्डके सामने पुण्य-कथा और आख्यानका पाठ

करना चाहिये। भक्तिपूर्वक यथाशक्ति वाचक और लेखकका

पूजन भी करना चाहिये। इस प्रकार जो मनुष्य वह व्रत करता

है, उसको इसी जन्ममें सभी पापोंसे मुक्ति पिल जाती है। यदि

इस छः मासके बीचमें ही ब्रतीकी मृत्यु हो जाती है तो उसे पूर्ण

उपवासक फल प्रात होता है। इसके अतिरिक्त उसे भगवान्‌

सूर्यनारायणके चरणद्वय-पूजनका फल भी मिलता है।

ब्रह्माजी पुनः बोले--माघ मासके कृष्ण पक्षकी

सप्तमीको सर्वाप्ति-सप्तमी कहते है । इस व्रतसे सभी अभीष्सित

कामनाएँ पूर्ण हो जाती हैं । इस ब्रतमें पाखण्डी आदि दुगचारियोंसे

वार्वाल्लाप = करे और एकाग्र-मनसे विनम्र होकर उन्दी भगवान्‌

सूर्यका पूजन करे।

माघ आदि छः मासमे प्रत्येक संक्रान्तिकों पारणा मानी

गयी है। तदनुसार माघ आदि छः मासोमें क्रमशः 'मार्तण्ड'

"क, 'चित्रभानु', 'विभावसु', 'भग' और “हेस'--ये छः

नाम कहे गये हैं। पुरे छः मासोमें धृत-दुग्धादि पञ्चगव्य

पदार्धौंको स्नान और प्रारानके लिये प्रशास्त एवं पापनाशक

माना गया है।

इस व्रतम तेल और क्षार पदार्थ अहण न करें, रात्रिमें

जागरण करे। संसारमें सब कुछ देनेवाली यह तिथि

सर्वार्थावाप्ति-सप्रमीके नामसे विख्यात है । हे अनघ ! अब मैं

कल्याण करनेवाली मार्तण्ड-सप्तमीका वर्णन कर रहा हूँ।

यह व्रत पौष मासके झुक पक्षकी सप्ममीकों किया जाता

है। इसके सम्यक्‌ अनुष्ठानसे अभीष्ट फलकी प्रपि होती है ¦

← पिछला
अगला →