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११६ * पुराणं परमं पुण्यं भविष्यं सर्वसौख्यदम्‌ « [ संक्षिप्त भविष्यपुराषाङ्क

ल्फ्रेकको प्राप्त होता है । प्रत्येक मासमे ब्राह्मणॉंकों यथाभिलषित सिद्ध मालपूआ आदि पक्ान्नोंड्रारा कथावाचक या ब्राह्मणके

दान देना चाहिये। चातुर्मासकी समाप्तिपर पुराण-बाचन कराना सहयोगसे किया गया यधोचित श्राद्ध भगवान्‌ सूर्यनारायणको

चाहिये और कीर्तनका आयोजन करना चाहिये। विदरानोको अभीष्ट है। यह तिथि अभीष्ट धर्म, अर्थ तथा काप--इस

चाहिये कि कथावाचककी पूजा करके श्राद्धकर्म करें, क्योंकि त्रिवर्गको सरव देनेवात्मी है। (अध्याय १०४)

कीक कीन

कापदा एवं पापनाशिनी-सप्तमी-म्रत-सर्णन

ब्रह्माजी बोले -- विष्णो ! फाल्गुन मासमे शुक्र पक्षको करे । फाल्गुन, चैत्र, वैशाख और ज्येष्ठ--इन चार मासमे इस

सप्मीको उपवास करके भगवान्‌ सूर्यनारायणकी विधिवत्‌ प्रकारसे व्रतकी पारणा करनेका विधान दै । भक्तिपूर्वकं

पूजा करनी चाहिये । तत्पश्चात्‌ दूसरे दिन अष्टको प्रातः करवीरक पुष्पोसे चारों महीने सूर्यकी पूजा करनी चाहिये ।

उठकर खानादिसे निवृत्त हो भक्तिपूर्वक सूर्यदेवका सम्यक्‌ कृष्ण अगरुकी घूप जलन चाहिये और गो-शृङखका जल

पूजन करके ब्राह्मणोंकरों दक्षिणा देनी चाहिये। श्रद्धापूर्वक प्राइन करना चाहिये तथा स्कॉड़-मिश्रित पक्कान्नका नैवेद्य देकर

भगवान्‌ सूर्यक निमित्त आहुतियां प्रदान कर भगवान्‌

आस्करको प्रणाम कर इस प्रकार प्रार्थना करनी चाहिये--

यमाराध्य पुरा देखी सावित्री काममाप तै।

स ये ददातु देखे! सर्वान्‌ कामान्‌ विभावसुः ।।

यपागध्यादिति: प्राप्ता सर्वान्‌ कापान्‌ यथेप्सितान्‌ ।

स ददात्वखिलान्‌ कामान्‌ प्रसन्नो से दिवस्पतिः ॥

श्रष्टरान्यश्च देवेन््रो यमभ्यर्व्य दिवस्पतिः ।

कामान्‌ सम्प्रप्रवान्‌ राज्यं स पे कापं प्रयच्छतु ॥

(ब्राह्मपर्व १०५। ५--७)

"प्राचीन समयपें देखो साविश्रीने अपनी अभीष्ट-सिद्धिके

लिये जिन आग्रध्यदेषकी आराधना की थी, वही मेरे आराध्य

भगवान्‌ सूर्य मेरौ सभी कामनाओंकों प्रदान करें। देवी

अदितिने जिनकी आराधना करके अपने सभी अभीर

मनोरथोको प्राप्त कर स्मा था, वही दिवस्पति भगवान्‌ भास्कर

प्रसन्न होकर मेरी सभी अभित्प्रपाओंको पूर्ण करे । (दुर्वासा

मुनिके शाफके कारण) राजपदसे च्युत देवराज इन्द्रने जिनकी

अर्चना करके अपनी सभी कामनाओंको प्राप्त कर स्वया था,

कहौ दिवस्पति मेरौ कामना पूर्ण करें ।

हे गरूटध्वज ! इस प्रकार भगवान्‌ सूर्यकी प्रार्थना कर

पूजा सम्पन्न करे । अनन्तर संयत होक़र हविष्यात्रका भोजन

२- कर्प चन्द्‌ मुह्तामगर्र तगरे नथा । ऊण शर्कंग

दशाङ्गोऽये स्मृतो भूष: परियो दैवस्य सर्वद ॥

ब्राह्मणोंको भोजन कराना चाहिये ।

आपाद आदि चातुर्मासमें पारणकी क्रिया इस प्रकार

है--इन गहीनोंगे चपेलीके पुष्प, गुग्गुल्का धूप, कु्पैका जल

और पायसके नैवेध्रक्म विधान है। स्वयं भी उसी पायसके

नैवेधकों ग्रहण करना चाहिये।

कार्तिक आदि चातुर्मासमें गोमृत्रसे दारीर-शोधन करना

चाहिये। दारङ्ग'-धूष, रक्त कपल तथा कसारका नैवेध

भावान्‌ सूर्यकों निवेदित करना चाहिये। प्रत्येक महीनेमें

्राह्मणोको दक्षिणा देनी चाहिये। प्रत्येक पारणामें भक्तिपूर्वक

सूर्यनारायणको प्रसन्न करनेका प्रयास करना चाहिये और

यथाइक्ति संचित धनका दान काना चाहिये। वित्तदाठ्फ्ता

(कंजूसी) न करे । क्योंकि सद्भावसे पूजा करनेपर तथा दान

आदिसे सात घोड़ोंसे युक्त रथपर आरूदृ होनेवाले भगवान्‌

सूर्य प्रसन्न होते है । पारणाके अन्तम यथादाक्ति जलः आदिसे

रुखन कराकर पूजा करनेपर भगवान्‌ सूर्य प्रसन्न हो

निर्वाधरूपसरे पनोवाञ्छित फल प्रदान करते हैं। यह समी

पुण्यदायिनी, पापविनादिनी तथा सभी फलोंको देनेवाली है।

मनुष्यकी जैसी अभिलाषाएँ होती हैं, वैसे ही फल प्राप्त होते

हैं। इस ब्रतकों करनेवाला व्यक्ति सूर्यके सपान ही तेजस्वी

बनकर स्वर्णमय विपानपर आरूढ़ हो सूर्यल्मेकको प्राप्त करता

सुगय शिद्धकै तथा॥

कृणौ मू

( ब्राह्यं १०५ । १५-१६)

कपूर, चन्दर, ऋणरमोधा, आरः, गगर, ऊपण, शर्क, दालचीनी, कस्तुरी तथा सुग -- दनद समभागं मिलाकर दशाङ्गं नामक धूप बन्कया

जाता रे । यर धूप्‌ भगवाम्‌ सुफदेक्को र्यदा प्रिय है।

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