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* पुराणौ परम पुप्यं॑ भविष्य सर्वसौख्यदम्‌ «

| संक्षिप्त भविष्यपुराणाङ्क

श्रीयताम्‌' - रसा उच्चारण करना चाहिये। इस विधिसे जो

मनुष्य विभावसु भगवान्‌ सूर्यनारायणकी पूजा करता है, यह

परम पदको प्राप्त होता है। इस प्रकार सप्तमी-त्रत करनेपर

ब्रत्कर्ताको सभी अभीष्ट कामनाओंको प्राप्ति हो जाती है।

पुत्रार्थीं पुत्र तथा धनार्थी धन प्राप्त करता है और रोगी मनुष्य

गेगोंसे मुक्त हो जाता है तथा अन्तमें वह नितान्त कल्याण प्राप्त

करता है।

इस प्रकार जो मनुष्य इस सप्तमो-ततका आचरण करता

है, यह सर्वत्र यिजयी होता है तथा सभी पापोंसे मुक्त होकर

वह विरुद्धता सूर्यस्प्रेकक्े प्राप्त करता है । (अध्याय ९७)

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अपराजिता-सप्तपी एवं महाजया-सप्तमी-त्रतका वर्णन

ब्रह्माजी बोले-- गणाधिप ! भाद्रपद मासके शुक्र

पक्षकी सप्तमी तिथि अपराजिता-सप्ममी नामसे विख्यात दै ।

यह महापातकॉंका नाश करती है । इस व्रते चतुर्थी तिधिकये

एकभक्त और पञ्चमो तिधिमें नक्तत्रत करनेको विधान रै । पष्ठी

तिधिको उपवास करके सप्तमी तिथिमें पारणा करनेका विधान

है। विद्रानेनि इसमें भी चार पारणाएँ बतायी है । सू्देक्कौ

पूजा करवीर-पुष्प, रक्तचन्दन, गुग्युलसे बने हुए धूप, गुड़से

बने अपूपसे करनी चाहिये। भाद्रपद आदि तैन मासोंमें श्वेत

पुष्प, धेत चन्दन, घृतका धूप तथा पायसके नैवेधसे

सूर्यदेवका पूजन करना चाहिये। मार्मजञीर्ष आदि तीन महीनोंमें

अगस्तव्य-पुष्प, कुँंकुमका विछेषन, सिहुक-घूप, शालि-

चावलके नैयेध आदिसे पूजा करनी चाहिये। फाल्गुन आदि

तीन मासॉमें रक्त कमलके पुष्प, अगर, चन्दन, अनन्त नामक

धूप, रार्कय या मिश्रौखष्डसे बने हुए अपूर्पोके नैवेद्यसे

सूर्यदेवकी पूजा करनो चाहिये। विद्वानोनि ज्येष्ठ आदिके

महीनोंमें सूर्यदेबकी पूजा करनेके लिये हसो विधिकों कहा है।

चारों पारणाओंमें क्रमशः भगवान्‌ सूर्यदेवके नाम इस प्रकार

हैं--सुधांशु, अर्यमा, सथिता और त्रिपुयत्तक । सभी

पारणाओंमें क्रमशः 'सुधाध्षु: प्रीयताम्‌' इत्यादि कहे । गोमूत्र,

पञ्चाव्य. घृत, गरम दूध--ये ब्रतके क्रमदाः प्राशन-

पदार्थ हैं।

जो मनुष्य इस विधिसे इस सप्तमी-ग्रतकों करता है, वह

सुद्धमें झ्त्नुओंसे पयजित नहीं होता । वह शत्रुकों जीतकर धर्म,

अर्थ तथा कम -- इस ब्रिवर्गके फलको भौ निःसंदेह प्राप्त कर

लेता है । त्रिवर्गो प्राप्त करके वह सूर्य -त्रकको राप होता है ।

जो मनुष्य इस प्रकार सदा प्रयत्रपूर्वक सप्तमी-ततको

करता है, वह शक्रुको पगजित करके सूर्यस्मेकको प्राप्त करता

है और श्वेत असे युक्त एबं स्वर्णिम ध्वज-पताकासे समन्विते

खनके द्वार भगवान्‌ वरुणदेवके समीपमें जाकर उनका प्रिय हो

जाता है।

ब्रह्माजी बोलछे--शुक्लपक्षकी सपमी तिधिमें जब सूर्य

संक्रमण करते हैं, तब वह सप्तमी महाजया कहलाती है, जो

भगवान्‌ भास्करको अत्यन्त प्रिय है। इस अवसरपर किये गये

खान, दान, जप, होम और पितृ-देव-पूजन--ये सब कार्य

कोटि-गुना फल देते हैं-- ऐसा भगवान्‌ भास्करने स्वयं कहा

है। (अध्याय ९८-९९)

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नन्दा-सप्तमी तथा भद्रा-सप्तमी-त्रतका विधान

ब्रह्माजी बोले--हे वीर ! मार्गजझोर्ष मासमे शरक पक्षकी विद्ानेनि तीन पारणाओंके करनेका उपदेश किया दै । इसके

जो सपमी होती है, वह नन्दा कहल्झाती है । बह सभीको पूजनमें मालतीके पुष्प, सुगन्ध, चन्दन, कर्पूर और अगरमे

आनन्दित करनेवाली तथा कल्याणकारिणी है। इस वरतम मिश्रित धुफ्का प्रयोग करना चाहिये । खाँड़के सहित दही-

पल्मी तिथिको एकभुक्तं और षष्ठ तिथिमें नक्तत्रत कर भातकर नैवेद्य भगवान्‌ भास्करको प्रिय है । उसी सवौदुमिश्रित

मनीषील्रेण सप्तमौ तिथिको उपास बतलाते है । इस चरते दही-भातकय भोजन ब्राह्मणोंकों करवाना चाहिये । तत्पश्चात्‌

श्रीखण्डं ग्रन्थिसदहितमगुरः सिद्िकै नेथा । मुस्ता तेन्द्रं भूतेश इक गृह्यते व्यम्‌ ॥

सले भूतो कथिते देवम । (ब्र्मपर्व ९८ । ९-१०)

श्रोखण्ड. अगरु, सिद्धक, नागरमोधा, प्रन्थिपर्णी, इद्रायण तथा शर्करा मित्तकर क धूप बनाया छना है,उसे अनन्त नामक धूप कहा गया ई ।

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