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[२ पुराणं परमं पुण्यं भविष्ये सर्वमौख्यदम्‌ [१

[ संक्षिप्त भविष्यपुगाणाङ्क

मेरी संतानें--यम, यमी, शनि, मनु तथा तपती मुझे उतने प्रिय

नहीं हैं, जितना मुझे कथावाचक प्रिय है'। वाचकके संतुष्ट

झोनेपर सभी देवता प्रसन्न हो जाते हैं, इसमें कोई संदेह नहीं।

क्योंकि हे देवसेनापते ! सबसे पहले संसारके द्वारा पूज्य जो

मेरा मुख था, उसी मुखसे संसारका कल्याण करनेके निमित्त

सभी इतिहास -पुयणादि ग्रन्थ प्रकट हुए। महापते ! मुझे पुराण

वेदोंसे भी अधिक प्रिय हैं। जो श्रद्धाभावसे नित्य इन्हें सुनते

हैं और वाचकको तृत्ति प्रदान करते हैं, वे परमपद प्राप्त करते

हैं। सुव्रत ! धर्प-अर्ध-काम तथा मोक्ष--पुरुषार्थवतुष्टयकी

उत्तम व्याख्याके लिये मैंने ये इतिहास-पुराण बनाये हैं।

वेदौका अर्थ अत्यन्त दुर्जेय है। अतएव महामते ! इनको

जाननेके लिये ही मैंने इतिहास-पुराणोंकी रचना की है। जो

मनुष्य प्रतिदिन पुराण-श्रवणक् उत्तम कार्य करवाता है, वह

सूर्यदेवसे ज्ञान प्राप्ततर परमपदको प्राप्त करता है। वाचककों

जो दक्षिणा देता है, वह सूर्यदेवके खोकको प्राप्त करता

है। है सुरश्रेष्ठ ! इसमे आश्षर्य क्या है? जैसे देवताओं

इन्द्र श्रेष्ठ हैं, शस्त्रोंमें बच्र श्रेष्ठ है और जैसे तेजस्वियोमे अपि,

इतिहास-पुराण-वाचक ब्राह्मण श्रेष्ठ है। जो मनुष्य भक्तिपूर्वक

पुराण-काचककत पूजन करता है, उसके उस पुण्यकर्मद्वारा

सम्पूर्ण जगत्‌ पूजित हो जाता है।

अह्माजीने पुनः कला -- दिष्डिन्‌ ! देवदेवेश्वर भगवान्‌

सूर्यके मन्दिरमे जो मनुष्य धर्मक श्रवण करता है या कराता

है, उसके पुण्यसे वह परम गतिको प्राप्त करता है ।

जो पुरुष भगवान्‌ सूर्यकी तीन यार प्रदक्षिणा करके

भूमिपर मस्तक झुकाकर सूर्यनारायणको प्रणाम करता है, वह

उत्तम गतिको प्राप्त होता है। जो मनुष्य जूता पहनकर मन्दिरमे

प्रवेश करता है, वह तामिस्न नामक भयंकर नरकमें जाता है ।

जो सूर्यदिक्के स्रानार्थ घृत, दूध, मधु, इक्षुरस अथया गङ्गादि

पवित्र नदियोंका उत्तम जल देते हैं, वे सम्पूर्णं कामनाओको

प्राप्तकर सूर्यमण्डलको प्राप्त करते हैं। अभिषेकके समय जो

उनका भक्तिपूर्वक दर्शन करते हैं, उन्हें अश्वमेघ-यज्ञका फल

प्राप्त होता है और अन्तम वे शिवस्प्रेकको जाते हैं।

सूर्यभगवान्‌को ऐसे स्थानपर खान कराना चाहिये, जहाँ

खानका जल आदि किसीसे त्रा न जा सके | जल्का लङ्गन

नदियोंमें सागर श्रेष्ठ माना गया है, चैसे ही सभी ब्राह्मणोंमें हो जानेपर अदुभ होता है। (अध्याय ९४-९५)

-नौीचे+ +अक

जया-सप्तमी -त्रतका वर्णन

दिण्डीने कहा- ब्रह्मन्‌ ! आपने मुझसे जो सात

सप्तमिर्योका वर्णन किया है, उसमें जो पहली समो है, उसके

विपये तो आपने विस्तारपूर्वक वर्णन किया, कितु दोष छः

सप्तमियोकि विषयमे कुछ नहीं का । अतः अन्य सभी

सप्तमियोंका भौ आप वर्णन करें, जिनमे उपवास करके मैं

सूर्यस्थेकको प्राप्त कर सकूँ।

ब्रह्माजी बोले--दिप्डिन्‌! झुक पक्षकी जिस

समीक हस्त नक्षत्र हो, उसे ` जया" सप्तमी कहते हैं। उस दिन

किया गया दान, हवन, जप, तर्पण तथा देव-पूजन एवं

सूर्यदेवका पूजन सौगुना कप्रभप्रद होता है। यह सप्तमी

भगवान्‌ भास्करको अत्यन्त प्रिय है। यह पापनाशिनो, श्रेष्ठ

यश देनेयाली, पुत्र प्राप्त कयनेवाली, अभीष्ट इच्छा ओंको पूर्ण

करनेवाली और लक्ष्मीको प्राप्त करानेवाल है । प्राचोन क्रालमें

इसी तिथिको भगवान्‌ सूर्यने हस्त नक्षत्रपर संक्रमण किया था,

है-न यमी न यपौ नापि न यन्दो न सजुस्तथा | तपती ते तंधान्यिष्टा येष्ठो खाचको धम ॥

इसलिये इसे शुक्ला सप्तमी भी कहते हैं। अपने दोनों हाथोमें

कमल धारण किये हुए भगवान्‌ सूर्यकी स्वर्णमयी प्रतिमा

बनाकर विधिपूर्वक वर्षभर उनका पूजन करना चाहिये। इस

तरतमे तीन पारणाएँ करनी चाहिये। प्रथम पारण; चार मासपर

करे । उसमें करवीरकः पुष्प तथा रक्तचन्दन, गुण्युलू-घूप तथा

गेहूँके आटेके ल्के नैवेध्ध आदिसे पूजा करनी चाहिये। इस

विधिसे देवाधिपति मार्तण्ड भगवान्‌ सूर्यकी विधिपूर्वक पूजा

करके ब्राह्मणोंकी पूजा करे । सप्तमो तिथियें उपयास रखकर

अष्टमीको पारणा करनी चाहिये। इस पारणामे पीलौ

सरसोमिश्रित जलसे स्नाने करें, गोमयका प्राज्ञान करे तथा

मदारसे दन्तधावन करे । “भानुर्षें प्रीयताम्‌' --“भगवान्‌ सूर्य

मुझपर प्रसन्न हों'--ऐसा उच्चारण करते हुए ये क्रियाएँ सम्पन्न

करे । यह पहली पारणा-विधि है।

दूसरी पारणामें मालतीके पुष्प, श्रीखण्ड-चन्दन,

(ब्राह्मर्फ्त ९४ ॥ ४५८]

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