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* पुराणै परम॑ पुण्यं भविष्यं सर्वसौख्यदप् «
[ संक्षिप्त भविष्यपुराणाङक
भगवान् सूर्यवारायणका पूजन करके तिलसे हवन करना
चाहिये। तदनन्तर यथाराक्ति ब्राह्मणॉंको मोदक, तिल तथा
ऋष्कुली (पूरी) का भोजन कराना चाहिये।
(अध्याय ८६-८७)
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विजय, आदित्याभिमुख तथा हदयवार -त्र्तोकी विधि
ब्रह्माजी योले--दिष्डिन् ! शक्त पक्षमें रोहिणी नक्षक्रसे
युक्त सप्तमी तिथिको विजय-संज्ञक आदित्यवार कहते है । यह
सम्पूर्ण पापों और भयोंकों नष्ट कर देता है । उस दिन सम्पन्न
किये गये पुण्यकर्म कोटिगुना फल प्रदान करते है ।
दिष्डिन् ! माघ मासके कृष्ण पक्षकी सप्तमीक् जो दिन हो
उसे आदित्याभिमुख कहते है ! उस दिन प्रातःकाल ही खान
कर गन्ध -पुष्यादि उपचारोंसे सूर्यनाएयणकी पूजा करनी
चाहिये। तदनन्तर गक्तचन्दनके काप्ठसे बने हुए स्तम्भक
आश्रय लेकर सूर्यदेवकी ओर मुखकर महाश्वेता-मनत्र जपते
हुए सार्यकाछतक खड़ा रहना चाहिये। तदनन्तर ब्राह्मणकों
भोजन कराकर दक्षिणा देनी चाहिये। तत्पश्चात् मौन होकर
स्वयै भी भोजन करना चाहिये। जो मनुष्य इस चतक
विधिपूर्वक पालन करते हैं, उन्हें भगवान् सूर्यनारायणका
अनुग्रह प्राप्त छोता है।
दिष्डिन् ! सेक्रान्तिके दिन यदि रविवार हो तो उसका
नाम हृदयवार होता है। वह आदित्यके हृदयको अत्यन्त प्रिय
है। उस दिन नक्तत्रत करके मच्दिरमें सूर्यनारायणके अभिमुख
एक सौ आट बार आदित्यहदयका पाठ करना चाहिये अथवा
सार्यकाल्तक भगवान् सूर्यका हृदयमें ध्यान करना चाहिये।
सूर्यास्त होनेके पश्चात् घर आकर यधाशक्ति ब्राह्मणको भोजन
कराये तथा मौनपूर्वक स्वये भौ खौरका भोजन करके
सूर्यदेवका स्मरण करते हुए भूमिपर ही दायन करे। इस प्रकार
जो इस दिन त्रत रहकर श्रद्धा-भक्तिसे सूर्यनारायणकी पूजा
करता है, उसके समस्त अभीष्ट सिद्ध हो जाते हैं और वह
भगवान् सूर्यके समान हौ तेज-कान्ति तथा यशको प्राप्त
करता है। (अध्याय ८८--९०)
मकण
रोगहा एवं महाश्चेतवार-व्रतकी विधि
ब्रह्माजी बोले--दिष्डिन् ! यदि आदित्यवारको
उत्तराफल्गुनी नक्षत्र पड़े तो उसे रोगह्मवार कहते रै । यह
सम्पूर्ण णेणों एवं भरयोको दूर करनेवाला है। इस दिन जो गन्ध,
पुष्प आदि उपचारोसे भगवान् सूर्यनारायणका पूजन करता है,
वह सभी रोगे मुक्त हो जाता है तथा सूर्यल्लोकको प्राप्त होता
है। षन्दारके पत्नोंका दोना बनाकर उसीमें उसीके फूल रखकर
राखियें भगवान् सूर्यनारायणके समने रख देना चाहिये तथा
प्रातःकाल उठकर उन्ही फूलॉसे उनका पूजन करना चाहिये।
तदनन्तर खीरका भोजन करके व्रतक समाप्ति करनी चाहिये ।
दिष्डिन् ! यदि सूर्यग्रहणके दिन रविवार हो तो उसे
महाश्ेतवार कहते हैं, वह भगवान् सूर्यको बहुत प्रिय है । उस
सूर्वनारायणकी स्थापना कर उनकी पूजा आदि करे। तत्पश्चात्
स्नान करके घृतसहित तिलोंका हवन करे । ग्रहणके समय
महाश्ेता-मनत्रका जप करता रहे और ग्रहणके समा॥ होनेके
पश्चात् पुनः स्नान करके महाश्वेता तथा ग्रहाधिपति भगवान्
सूर्यका पूजन करे । ब्राह्मणोंसे पुराण सुनकर उन्हें भोजन कराये
तथा यथाशक्ति दक्षिणा दे। उसके बाद स्वयं मौन होकर
भोजन करे। इस दिन किये हुए खान, दान, जप, ह्येष आदि
कर्म अनन्त फल देते हैं।
दिष्डिन्! सम्पूर्ण पापों और भयोंको दूर करनेवाले
सूर्यनारायणके इन द्वादश वा्येका मैंने जो वर्णन किया है, इसे
जो मनुष्य पढ़ता है अथवा सुनता है, वह भगवान् सूर्यका प्रिय
दिन उपवास करके पतित्रताके साथ गन्ध-पुष्पादि उपचारोंस हो जाता है और जो इन व्रततको नियमपूर्वक करता है, वह
भक्तिपूर्वक सूर्यनारायणका पूजन करके महाश्वेता-मनत्रका जप॒ धर्म, अर्थ, काम और चद्धमाके समान कान्ति, सूर्यके समान
करे । तदनन्तर महाशचेताकी पूजा करके सूर्यन्गयणकौ पूजा प्रभा, इद्धके समान पराक्रम तथा स्थायी लक्ष्मीको प्राप्त करता
करनेका विधान है। महाश्वेताकी स्थापना करके गन्ध-पुष्प है, तदनन्तरं अन्तमें बह दिवलेककये चला जाता है।
आदिसे उनका पूजन करे तथा उरक सम्मुख एक वेदीपर (अध्याय ९१-९२)