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ब्राहापर्त ]

* सूर्यभगवान्‌को नमस्कार एवं प्रदक्षिणा करनेका फल +

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छयाने कोई उत्तर नहीं दिया, जिससे सूर्यनारायणको क्रोध आ

गया और ये शाप देनेके लिये उद्यत हो गये । खया भगवान्‌

सूर्यको क्रुद्ध देखकर भयभीत हो गयी और उसने अपना

सम्पूर्ण कृत्तान्त वतत्पर दिवा । तब सूर्य अपने ससुर विश्वकर्माकि

पास गये। अपने जामाता सूर्यको क्रुद्ध देखकर विश्वकर्माने

उनका पूजन किया तथा मधुर वचनोसे शान्त किया और

कहा--'देव ! पेरी पुत्री संज्ञा आपके अत्यन्त तेजकों सहन ने

कर सकनेके कारण वनकरे चली गयी है और वह आपके

उत्तम रूपके लिये वहाँपर महान्‌ तपस्या कर रहो दै ब्रह्मजीने

मुझे आज्ञा दी है कि यदि उनकी अभिरुचि हो तो तुम संसारके

कल्याणके लिये सूर्यकों तराज़्कर उत्तम रूप बनाओ ।'

विश्वकर्माका यह वचन सूर्यनारायणते स्वीकार कर लिया और

तब विश्वकर्माने शाकद्रीपमें सूर्यगारायणको भ्रमि (खराद) पर

चढ़ाकर उनके प्रचण्ड तेजकों खराद डाला, जिससे उनका रूप

बहुत कुछ सौम्य चन गया। सूर्यनारायणने भी अपने

योगबलसे इस ब्लातकी जानकारी की कि सम्पूर्ण प्राणियॉसे

अदृश्य हमारी पत्नी संज्ञा अश्विनीके रूपको धारण करके उत्तर-

कुरुथ निवास कर रही है। अतः सूर्य भी स्वये अश्रका रूप

धारण करके उसके पास आकर घिछे। फलतः कात्परन्तरमे

अधिनीसे देवताओंके वैद्य जुड़वाँ अधिनीकुमारोंका जन्म

हुआ। उनके नाम हैं नासत्य तथा दस्त्र। इसके पश्चात्‌

सूर्यनारायणने अपना वास्तविक रूप धारण किया । उस्र रूपको

देखकर संज्ञा अत्यन्त प्रीतिसे प्रसन्न हुई और वह उनके समीप

गयी । तत्पश्चात्‌ संज्ञासे रवन्त' नामका पुत्र उत्पन्न हुआ, जो

भगवान्‌ सूर्यनारायणके समान हो सौन्दर्य-सम्पत्न था।

इस प्रकार सावर्णिं मनु, यम, यमुना, डानि, तपती, दो

अश्विनीकुमार, चैवस्वत॒मनु और रेवन्त-ये सब

सूर्यतारायणकी संतानें हुईं। यमकी धनिनी यमी यमुना नदी

बनकर प्रवाहित हुई। सावर्णिं आठवें मनु होंगे। सावर्णि मनु

भेर पर्वतके पृष्ठप्रदेशापर तपस्या कर रहे हैं। सावर्णिके भ्राता

शानि एक ग्रह बन गये और उनकी भगिनी तपती नदी बन

गयी. जो विश्यगिरिसे निकलकर पश्चिमी समुद्रे जाकर

मिलती है। इस नदीमें स्नान करनेसे बहुत ही पुण्य श्राप होता

है। सौम्या नदीसे तपतीका संगम और गङ्गा नदीसे

जैवस्वती--यमुनाका संगम होता है। दोनों अश्विनीकुमार

देवताओंके वैद्य रै, जिनके विद्यसे ही वैद्यगण भूमिपर अपना

जीवन-निर्वाह करते हैं। सूर्यगारायणने अपने समान रूपवाले

रेवन्त नामक पुत्रको अश्वौका स्वामी बनाया। जो मानव अपने

गन्तव्य मार्क लिये रेवत्तकी पूजा करके प्रस्थान करता है,

उसे मार्ग क्लेद्व नहीं होता । विश्चकसकि द्वार सूर्वनारायणको

खग़दपर चढ़ाकर जो तेज ग्रहण किया गया, उससे उन्हेनि

भगवान्‌ सूर्यकी पूजा करनेके लिये भोजकोंकों उत्पन्न किय ।

जो अमित तेजस्वी सूर्यनारावणकी संतानोत्पत्तिकी इस कथाको

सुनता अथवा पढ़ता है, वह सभी पापोंसे मुक्त होकर

सूर्यलॉकमें दीर्घकाल्तक रहनेके पश्चात्‌ पृथ्वीपर चक्रवर्ती राजा

होता है। (अध्याय ७९)

सूर्यभगवानको नमस्कार एवं प्रदक्षिणा करनेका फल

और विजया-सप्तमी-ब्रतकी विधि

देवर्षि नारदने कहा--साम्य ! अच मैं आपको

भगवान्‌ सूर्यनारायणके पूजन, उनके निमित्त दिये गये दान तथा

उनको किये गये प्रणाम एवं प्रदक्षिणाके फलके विषयमे दिण्डी

और ब्रह्माजीका संवाद सुना रहा हूँ, आप ध्यानसे सुनें--

ब्रह्माजी बोले--दिण्डिन्‌ ! सूर्य भगवानका पूजन,

उनकी स्तुति, जप, प्रदक्षिणा तथा उपवास आदि करनेसे

अभीष्ट फलकी प्राप्ति होती है। सूर्यनारायणको नप्न होकर

प्रणाम करनेके लिये भूमिपर जैसे ही सिरका स्पर्श होता है,

वैसे ही तत्काल सभौ पातक नष्ट हो जाते हैं" । जो मनुष्य

भक्तिपूर्वक सूर्यनारायणकी प्रदक्षिणा करता है, उसे सप्तद्वीपा

वसुमतीकी प्रदक्षिणाका फल प्राप्त हो जाता है और वह समस्त

गेगोंसे मुक्त होकर अन्त समयमे सूर्यलोकको प्राप्त करता है,

कितु प्रदक्षिणामें पवित्रताका ध्यान रखना आयदश्यक है।

अतएव जूता या खड़ाऊँ आदि पहनकर प्रदक्षिणा नहीं करनी

चाहिये। जो मनुष्य जूता या खड़ा पहनकर सूर्य-मन्दिरमें

प्रवेश करता है, वह असिपत्र-वन नामक ` घोर नरकमें जाता

# प्रणिष्व्य दरो भूमौ नमस्कपरो रये तत्क्षणात्‌ सर्वपापेभ्यों मुच्यते कात्र सद्यः ॥

(ब्रह्मपर्व ८० १०}

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