* पुराणं परमं पुण्यं भविष्यं सर्वसौख्यदम् +
[ संक्षिप्त भविष्यपुराणाङ्ख
भगवान् सूर्यका परिवार
सुमन्तु मुनि बोले-- रजन् ! साम्बने नारदजीसे पुनः
कहा-- पहापुने ! आपने भगवान् सूर्यनारायणके अत्यन्त
आनन्दप्रद माहात्यका वर्णन किया, जिससे मेरे हृदयमें उनके
प्रति दृढ़ भक्ति उत्पन्न हो गयी । अब आप भगवान्
सूर्यनाययणकी पत्री महाभागा राज्ञी एवं निश्षुभा तथा दिण्डी
और पिगल आदिक विधये यताये ।
नार्दजीने कष्टा -- साम्ब ! भगवान् सूर्यनारायणकी
राजी और निक्षुभा नामकी दो पलियां है । इनमेंसे राशीको चौ
अर्थात् स्वर्ग और निश्षुभाकों पृथ्वी भी कहा जाता है। पौष
शु सप्तमी तिथिको शौके साथ और माघ कृष्णपक्षकी सप्तमी
तिथिको निक्षुभा (पृथ्वी)के साथ सर्यनायायणका संयोग होता
है। जिससे राज्ी--चौसे जल और निश्चुभा--पृथ्वीसे तीनों
लोकोंके कल्याणके लिये अनेक प्रकारकी सस्य-सम्पत्तियाँ
उत्पन्न होती हैं। सस्य (अत्न) को देखकर अव्यक्त प्रसन्नतासे
बऋह्यण हवन करते हैं। स्वाहाकार तथा स्वधाकारसे देवताओं
और पितरोंकी तृप्ति होती है। जिस प्रकार राज्ञी अपने दो रूपेम
हुई और ये जिनकी पुत्री हैं तथा इनकी जो संताने हुई उनका
हम वर्णन करते हैं, इसे आप सुन्नें--
साम्ब ! ब्रह्माके पुत्र मरीचि, मरीचिके कश्यप, कश्यपसे
हिरण्यकशिपु, हिरण्यकशिपुसे प्रह्माद, प्रह्मादसे विरोचने
नामका पुत्र हुआ। विरोचनकी बहिनका विवाह विश्वक्मकि
साथ हुआ, जिससे संज्ञा नामकी एक कन्या उत्पन्न हुई।
फरीचिकी सुरूपा नामक कत्याका विवाह अंगिय ऋषिसे
हुआ, जिससे बृहस्पति उत्पन्न हुए। यूहस्पतिकी ब्रह्मवादिनी
बहिनने आठवें प्रभास नापक वसुसे पाणिग्रहण किया, जिसका
पुत्र विश्वकर्मा समस्त दिल्पोंकों जाननेवात्म हुआ। उन्हींका
नाम त्वष्टा भी है। जो देवताओंके बढ़ई हुए। इन्हींकी कन्या
सैज्ञाकों ग्ज्ञी कहा जाता है। इन्हींकों यौ, ल्ट, प्रभा तथा
सुरेणु भी कहते हैं। इन्हीं संज्ञाको छायाका नाम निष्ुभा है।
सूर्य भगवान्की संज्ञा नामक भार्य बदी ही रूपवतौ और
पतित्रता थी। कितु भगवान् सूर्यनारायण मानवरूपमें उसके
समीप नहीं जाते थे और अत्यधिक तेजसे परिव्याप्त होनेके
कारण सूर्यनारायणका वह स्वरूप सुन्दर मालूम नहीं होता था।
अतः वह संज्ञाकों भी अच्छा नहीं लगता था। संज्ञासे तीन
संतानें उत्पन्न हुईं, कितु सूर्यनारायणके तेजसे व्याकुल होकर
वह अपने पिताके घर चली गयी और हजारों वर्षतक वहाँ
रही। जय पिताने संज्ञासे पतिके घर जानेके लिये अनेक कार्
कहा, तब यह उत्तर कुरुदेशकों चली गयी । वहाँ वह
अश्विनीका रूप धारण करके तृण आदि चरती हुई समय
बिताने लगी।
सूर्यभगवान्के समीप संज्ञाके रूपसें उसकी छाया निवास
करती थी। सूर्य उसे संज्ञा ही समझते थे। इससे दो पुत्र हुए
और एक कन्या हुई। श्रुतश्रथा तथा श्रुतकर्मा--ये दो पुत्र और
अत्यन्त सुन्दर तपती नामकी कन्या छयाकी संतानें है ।
श्रुतश्रवा तो सावर्णि मनुके नामसे प्रसिद्ध होगा और श्रुतकमनि
शमैक्षर नामसे प्रसिद्धि प्राप्त की। संज्ञा जिस प्रकारसे अपनी
सँैतानोंसे स्ह करती थी, वैसा ख्रेह छायाने नहीं किया । इस
अपमानको संज्ञाके ज्येष्ट पुत्र सावर्णि मनुने तो सहन कर
लिया, किंतु उनके छोटे पुत्र यम (धर्मराज) सहन नहीं कर
सके । छायाने जबर बहुत ही छेद देना शुरू किया, तब क्रोधने
आकर बालपन तथा भावी प्रबलताके कारण उन्होंने अपनी
किपाता छायाकी भर्त्सना कौ और उसे पारनेके लिये अपना पैर
उठाया। यह देखकर क्रुद्ध विमाता छयाने उन्हें कठोर दाप दे
दिया--'दुष्ट ! तुम अपनी मौके पैरसे मारनेके लिये उद्यत हो
रहे हो, इसलिये तुग्र यह पैर टूटकर गिर जाय ।' छायाके
शापसे विह्वल होकर यम अपने पिताके पास गये और उन्हें
सारा वृत्तात्त कह सुनाया । पुत्रकी बातें सुनकर सूर्थनारायणने
कहा--'पुत्र ! इसमें कुछ विशेष कारण होगा, क्योकि अत्यन्त
धर्मात्पा तुझ-जैसे पुत्रके ऊपर माताकों क्रोध आया है। सभी
पापोंका तो निदान है, कितु पताका शाप कभी अन्यथा नहीं
हो सकता। पर भै तुष्होरे ऊपर अधिक स््रेहेके कारण एक
उपाय कहता हूँ। यदि तुम्हारे चैरके मोसको लेकर कृमि
भूमिपर चकते जाये तो इससे माताका शाप भी सत्य होगा और
तुम्हारे पैरकी रक्षा भी हो जायगी।'
सुमन्तु मुनिने कहा--राजन् ! इस प्रकार पुत्रको
आश्वासन देकर सूर्यनारायण छयाके समीप जाकर
योल -- ` छाये ! तुम इनसे सह क्यो नहीं करती हो ? माताके
लिये तो सभौ संतान समान ही होनी चाहिये ।' यह सुनकर