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है अयर्दवेद संहिता धाग-९

१७१. जङ्गिडो जम्भाद्‌ विशराद्‌ विष्कन्धादभिशोचनात्‌ ।

मणिः सह्रवीर्यः परि णः पातु विश्वतः ॥२ ॥

यह जंगिड़ मणि सहसो बलों से सम्पन्न होकर जपुहाई बढ़ाने वालो, दुर्बलता पैदा करने वाली, देह को

सुखाने बाली तथा अकारण आँखों में आँसू आने वाले रोग से हमारी सुरक्षा करे ॥२ ॥

१७२. अयं विष्कन्धं सहतेऽयं बाधते अत्िण: । अयं नो विश्वभेषजो जड्डिडः पात्वंहसः ।

यह जंगिड मणि सुखाने वाले रोग से हमारी सुरक्षा करती है और भक्षण करने वाली कृत्या आदि का विनाश

करती है । यह हमारे समस्त रोगों का निवारण करने वालीसप्पूर्ण ओषधिरूप है, यह पाप से हमारी सुरक्षा करे ॥३ ॥

१७३. देवै्दत्तेन मणिना जड्डिडिन मयोभुवा । विष्कन्धं सर्वा रक्षांसि व्यायामे सहामहे ॥४

देवताओं द्वारा प्रदान किये गये, सुखदायक जंगिड़ मणि के द्वारा, हम सुखाने वाले रोगो तथा समस्त रोग-

कीटाणुओं को संघर्ष में दबा सकते हैं ॥४ ॥

१७४. शणभश्ष मा जड्डिड्श्न विष्कन्धादभि रक्षताम्‌ |

अरण्यादन्य आभृतः कृष्या अन्यो रसेभ्य: ॥५ ॥

सन (बाँधने के लिए सन से बने धागे अथवा सन का विशिष्ट योग) तथा जंगिड़ मणि विष्कंष रोग से हमारी

रक्षा करें । इनमें से एक की आपूर्ति वन से तथा दूसरे की कृषि द्वारा उत्पादित रसो से को गई है ॥५ ॥

१७५. कृत्यादूषिरयं मणिरथो अरातिदूषि: ।

अथो सहस्वाजूजङ्गिडः प्र ण आयूंषि तारिषत्‌ ॥६ ॥

यह जंगिड़ मणि कृत्या आदि से सुरक्षा करने वाली है तथा शत्रुरूप व्याधयो को दूर करने वाली है । यह

शक्तिशाली जंगिड़मणि हमारे आयुष्य की वृद्धि करे ॥६ ॥

[ ५- इन्रशोौर्य सूक्त ]

[ऋषि - भृगु आधर्वण । देवता -इन्द्र । छन्द - रिष्ट, १ निवृत्‌ उपरिष्टात्‌ वृहती, २ विराट्‌ उपरिष्टात्‌ बृहती,

३ विराट्‌ पथ्या बृहती, ४ पुरोविराट्‌ जगती । ]

१७६. इनदर जुषस्व प्र वहा याहि शूर हरिभ्याम्‌ ।

पिबा सुतस्य मतेरिह मधोश्चकानश्चारर्मदाय ॥१ ॥

हे शूरवीर इन्द्रदेव आप आनन्दित होकर आगे बढ़ें । आप अपने अश्च के द्वारा इस यज्ञ मे पधार । परितुष्ट

तथा आनन्दित होने के लिए विद्वन्‌ पुरुषों द्वारा अभिषुत किए गए मधुर सोमरस का पान करें ॥१ ॥

१७७, इन्द्र जठरं नव्यो न पृणस्व मधोर्दिवो न ।

अस्य सुतस्य स्वश्णोप त्वा मदाः सुवाचो अगुः ॥२ ॥

हे शूरवीर इन्द्रदेव ! आप प्रशंसनीय तथा हर्षवर्धक मधुर सोमरस के द्वारा उदरपूर्ति करें । इसके काद अभिषुत

सोमरस तथा स्तुतयो के माध्यम से आपको स्वर्गं की तरह आनन्द प्राप्त हो ॥२ ॥

१७८. इन्द्रस्तुराधाण्मित्रो वृत्रं यो जघान यतीर्न ।

बिभेद बलं भृगुर्न ससहे शत्रून्‌ मदे सोमस्य ॥३ ॥

इन्द्रदेव समस्त प्राणियों के मित्र है तथा रिपुओं पर त्वरित गति से आक्रमण करने वाले है । उन्होंने वृत्र या

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