+ अध्याय ५० *
सम्पन्न रहकर शत्रुओंका मर्दन करनेवाली हैं।
नवकमलात्मक पीठपर दुर्गाकी प्रतिमामें उनकी
पूजा करनी चाहिये। पहले कमलके नौ दलोंमें
तथा मध्यवर्तिनी कर्णिकामें इन्द्र आदि दिक्पालॉकी
तथा नौ तत्त्वात्मिका शक्तियोंकें साथ दुर्गाकी
पूजा करे॥६६॥
दुर्गाजीकी एक प्रतिमा अठारह भुजाओंकी
होती है। वह दाहिने भागके हाथोंमें मुण्ड,
खेटक, दर्पण, तर्जनी, धनुष, ध्वज, डमरू, ढाल
और पाश धारण करती है; तथा वाम भागकी
भुजाओंमें शक्ति, मुद्गर, शूल, वज्र, खड्ग,
अंकुश, बाण, चक्र और शलाका लिये रहती है ।
सोलह बाँहवाली दुर्गाकी प्रतिमा भी इन्हीं आयुधोंसे
युक्त होती है । अठारहमेंसे दो भुजाओं तथा डमरू
और तर्जनी --इन दो आयुधोंको छोड़कर शेष
सोलह हाथ उन पूर्वोक्त आयुधोंसे ही सम्पन्न होते
हैं। रुद्रचण्डा आदि नौ दुर्गाएँ इस प्रकार हैं--
रुद्रचण्डा, प्रचण्डा, चण्डोग्रा, चण्डनायिका, चण्डा,
चण्डवती, चण्डरूपा और अतिचण्डिका। ये
पूर्वादि आठ दिशाओंमें पूजित होती हैं तथा नवीं
उग्रचण्डा मध्यभागे स्थापित एवं पूजित होती
हैं। रुद्रचण्डा आदि आठ देविर्योकौ अङ्गकान्ति
क्रमशः गोरोचनाके सदृश पौली, अरुणवर्णा, काली,
नीली, शुक्लवर्णा, धूम्रवर्णा, पीतवर्णा और श्रेतवर्णा
है । ये सब-की-सब सिंहवाहिनी है । महिषासुरके
कण्ठसे प्रकट हुआ जो पुरुष है, वह शस्त्रधारी है
और ये पूर्वोक्त देवियाँ अपनी मुद्रीमें उसका केश
पकड़े रहती हैँ ॥ ७--१२॥
ये नौ दुर्गाएँ "आलीढा "^ आकृतिकी होनी
चाहिये । पुत्र-पौत्र आदिकी वृद्धिके लिये इनकी
स्थापना (एवं पूजा) करनी उचित है । गौरी ही
चण्डिका आदि देवियोंके रूपमे पूजित होती हैं।
वे ही हाथोंमें कुण्डी, अक्षमाला, गदा ओर अग्नि
धारण करके "रम्भा" कहलाती है । वे ही वनमें
"सिद्धा" कही गयी हैं। सिद्धावस्थामे वे अग्निसे
रहित होती है । ' ललिता" भी वे ही है । उनका
परिचय इस प्रकार है-उनके एक बायें हाथमें
गर्दनसहित मुण्ड है और दूसरेमें दर्पण । दाहिने
हाथमे फलाज्जलि है और उससे ऊपरके हारे
सौभाग्यकी मुद्रा ॥ १३-१४ ३ ॥
लक्ष्मीके दायें हाथमें कमल और बायें हाथमें
श्रीफल होता है। सरस्वतीके दो हाथोंमें पुस्तक
और अक्षमाला शोभा पाती है और शेष दो
हाथोंमें वे वीणा धारण करती हैं। गज्जाजीकी
अङ्गकान्ति श्वेत है। वे मकरपर आरूढ़ हैं। उनके
एक हाथमें कलश है और दूसरेमें कमल। यमुना
देवी कछुएपर आरूढ हैं। उनके दोनों हाथोंमें
कलश है और वे श्यामवर्णा हैं। इसी रूपमें इनकी
पूजा होती है। तुम्बुरुकी प्रतिमा वीणासहित होनी
चाहिये। उनकी अङ्गकान्ति श्वेत है। शूलपाणि
शंकर वृषभपर आरूढ हो मातृकाओंकि आगे-
आगे चलते हैं । ब्रह्माजीकी प्रिया सावित्री गौरवर्णा
एवं चतुर्मुखी हैं। उनके दाहिने हाथोंमें अक्षमाला
और सुक् शोभा पाते हैं और बायें हाथोंमें वे
ध नि भि आ
१. इन नौ तत्वात्मिका शक्धियॉँंकी ज्रामावलो इस प्रकार समझनी चाहिये - अग्निपुराण अध्याय २१ में--लक्ष्मी, मेधा, कला, तुष्टि.
पुष्टि, गौरी, प्रभ, मि और दुर्गा-ये नाम आये हैं। तथा तन्वरसमुच्यय और मन्त्रमहार्णजके अनुसार इन शक्तियोंके ये नाम ह प्रभा.
माया, जया, सुक्ष्मा, विशुद्धा, तन्दिती, सुप्रभा, विजवा तथा सर्वसिद्धिदा।
२. वाचस्पत्वकोषमें आलोढका लक्षण इस प्रकार दिया गया है--
ष
। विहस्त्वः प्क विस्तारे तदालीढ॑ प्रकीर्तितम् घ
भुग्ववामपर्द
जिसमें मुद्दा हुआ बायाँ पैर तो पीछे हो और तने हुए घुटने तथा ऊरुवाला दाहिना पैर आगेकी ओर हो, दोनोंके बीचका विस्तार
चाँच चित्ता हो तो इस प्रकारके आसन या अवस्थावको ' आलीड ' कहा गया है।