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+ अध्याय डंडे *

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कनिष्ठिका और अँगूठेकी लंबाई चार अन्जुलकी

करे। अँगूठेमें दो पोरु बनावे और बाकी सभी

अँगुलियोंमें तीन-तीन पोरु रखे। सभी अँगुलियोंके

एक-एक पोरुके आधे भागके बराबर प्रत्येक

अँगुलीके नखकी नाप समझनी चाहिये। छातीकी

जितनी माप हो, पेटकी उतनी ही रखे। एक

अङ्गुलके छेदवालौ नाभि हो। नाभिसे लिङ्गके

बीचका अन्तर एक बित्ता होना चाहिये॥ २३--३३॥

नाभि- मध्याङ्ग (उदर)-का घेरा बयालीस

अङ्गुलका हो । दोनों स्तनोके बीचका अन्तर एक

वित्ता होना चाहिये । स्तोका अग्रभाग-चुचुक

यवके बराबर बनावे । दोनों स्तनोँका घेरा दो पदेकि

बराबर हो । छातीका घेरा चौंसठ अङ्गुलका बनावे ।

उसके नीचे ओर चारों ओरका घेरा "वेष्टन" कहा

गया है। इसी प्रकार कमरका घेरा चौवन अङ्गुलका

होना चाहिये । ऊरुओंके मूलका विस्तार बारह -बारह

अरु हो। इसके ऊपर मध्यभागका विस्तार

रखना चाहिये। मध्यभागसे नीचेके अङ्गका

विस्तार क्रमशः कम होना चाहिये। घुटनोंका

विस्तार आठ अङ्गुलका करे और उसके नीचे

जंधाका घेरा तीन गुना, अर्थात्‌ चौबीस अङ्गुलका

हो; जंघाके मध्यका विस्तार सात होना

चाहिये और उसका घेरा तीन गुना, अर्थात्‌ इक्कीस

अङ्गुलका हो । जंघाके अग्रभागका विस्तार पाँच

और उसका घेरा तीन गुना - पंद्रह भुल

हो। चरण एक-एक बित्ते लंबे होने ।

विस्तारसे उठे हुए पैर अर्थात्‌ पैरॉंकी ऊँचाई चार

अद्भुलकी हो। गुल्फ (घुट्टी)-से पहलेका हिस्सा

भी चार अतुला लका ही हो ॥ ३४--४०॥

दोनों चौड़ाई छः अन्जुलकी, गुहाभाग

तीन अङ्गुलका और उसका पंजा पाँच अङ्गुलका

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चौड़ा होना उचित है । शेष अँगुलियोंके मध्यभागका

विस्तार क्रमशः पहली अँगुलीके आठवें-आठवें

भागके बराबर कम होना चाहिये। अँगूठेकी

ऊँचाई सवा अङ्गुल बतायी गयी है । इसी प्रकार

अँगूठेके नखका प्रमाण और अँगुलियोंसे दूना

रखना चाहिये। दूसरी .अँगुलीके नखका विस्तार

आधा अङ्गुल तथा अन्य अँगुलियोंके नखोंका

विस्तार क्रमशः जरा-जरा-सा कम कर देना

चाहिये ॥ ४१--४३ ॥

दोनों अण्डकोष तीन-तीन अङ्गुल लंबे बनावे

और लिङ्ग चार अङ्गुल लंबा करे। इसके ऊपरका

भाग चार अङ्गुल रखे। अण्डकोषोंका पूरा घेरा

छः-छः का लका होना चाहिये। इसके सिवा

भगवान्‌की प्रतिमा सब प्रकारके भूषणोंसे भूषित

करनी चाहिये। यह लक्षण उद्देश्यमात्र (संक्षेपसे )

बताया गया है ॥ ४४-४५ ॥

इसी प्रकार लोकमें देखे जानेवाले अन्य

लक्षणोंको भी दृष्टिमें रखकर प्रतिमामें उसका

निर्माण करना चाहिये। दाहिने हाथोंमेंसे ऊपरवाले

हाथमें चक्र और नीचेवाले हाथमें पद्म धारण

करावे । बायें हाथोंमेंसे ऊपरवाले हाथमें शङ्खं ओर

नीचेवाले हाथमें गदा बनावे। यह वासुदेव श्रीकृष्णका

चिह्न है, अतः उन्हींकी प्रतिमामें रहना चाहिये।

भगवान्‌के निकट हाथमे कमल लिये हुए लक्ष्मी

तथा वीणा धारण किये पुष्टि देवीकी भी प्रतिमा

बनावे । इनकी ऊँचाई (भगवद्विग्रहके ) ऊरुओंके

बराबर होनी चाहिये । इनके अलावा प्रभामण्डलमें

स्थित मालाधर और विद्याधरका विग्रह बनावे।

प्रभा हस्ती आदिसे भूषित होती है । भगवान्‌के

चरणके नीचेका भाग अर्थात्‌ पादपीठ कमलके

आकारका बनावे। इस प्रकार देव-प्रतिमाओंमें

होना चाहिये । पैरोंमें प्रदेशिनी, अर्थात्‌ अँगूठा | उक्त लक्षणोका समावेश करना चाहिये ॥ ४६--४९॥

इस प्रकार आदि आग्रेव महापुराणमें "कासुदेव आदिक प्रत्मिओंके लक्षणका वर्णन” नामक

चाँवालीसवाँ अध्याय पूरा हुआ॥ ४४॥

(व,

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