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* अध्याय ४३*

८७

शिखरके आधे भागमें सिंहकी प्रतिमाका निर्माण

करावे। शुकनासापर सूतको स्थिर करके उसे

मध्य संधितक ले जाव ॥ १५-१६॥

इसी प्रकार दूसरे पारमे भी सूत्रपात करे।

शुकनासाके ऊपर वेदी हो और वेदीके ऊपर

आमलसार नामक कण्ठसहित कलशका निर्माण

कराया जाय। उसे विकराल न बनाया जाय।

जहाँतक वेदीका मान है, उससे ऊपर ही कलशकी

कल्पना होनी चाहिये । मन्दिरके द्वारक जितनी

चौड़ाई हो, उससे दूनी उसकी ऊँचाई रखनी

चाहिये। द्रारको बहुत ही सुन्दर और शोभासम्पन्न

बनाना चाहिये । द्वारके ऊपरी भागे सुंदर मङ्गलमय

वस्तुओंके साथ गूलरकी दो शाखाएँ स्थापित करे

(खुदवावे) ॥ १७--१९॥

द्वारके चतुर्थाशमे चण्ड, प्रचण्ड, विष्वक्सेन

और वत्सदण्ड -इन चार द्वारपालोंकी मूर्तियोंका

निर्माण करावे। गूलरकी शाखाओंके अर्धं भागमें

सुंदर रूपवाली लक्ष्मीदेवीके श्रीविग्रहको अङ्कित

करे। उनके हाथमे कमल हो ओर दिग्गज

कलशोंके जलद्वारा उन्हें नहला रहे हो । मन्दिरके

परकोटेकौ ऊँचाई उसके चतुर्थाशके बराबर हो ।

प्रासादके गोपुरकी ऊँचाई प्रासादसे एक चौथाई

कम हो। यदि देवताका विग्रह पाँच हाथका हो

तो उसके लिये एक हाथकी पीठिका होनी

चाहिये ॥ २०--२२॥

विष्णु-मन्दिरके सामने एक गरुडमण्डप तथा

भौमादि धामका निर्माण करावे । भगवानूके श्रीविग्रहके

सब ओर आलें दिशाओंके ऊपरी भागमें भगवलमतिमासे

दुगुनी बड़ी अवतारोंकी मूर्तियां बनावे। पूर्व दिशामें

वराह, दक्षिणमें नृसिंह, पश्चिममें श्रीधर, उत्तरमें

हयग्रीव, अग्निकोणमें परशुराम, नैर्क्रत्यकोणमें श्रीराम,

वाबव्यकोणमें वामन तथा ईशानकोणमें वासुदेवकी

मूर्तिका निर्माण करें। प्रासाद-रचना आठ, बारह आदि

समसंख्यावाले स्तम्भोंद्वार करनी चाहिये। द्वारके

अष्टम आदि अंशको छोड़कर जो वेधं होता है,

वह दोषकारक नहीं होता है॥ २३--२६॥

इस ग्रकार आदि आग्रेव महापुराणमें 'प्रासाद आदिके लक्षणका वर्णन” नामक

बवालीसवाँ अध्याय पूरा हुआ॥# ४२॥

नि मम

तैंतालीसवाँ अध्याय

मन्दिरके देवताकी स्थापना और भूतशान्ति आदिका कथन

हयग्रीवजी कहते हैं-- ब्रह्मन्‌! अब मैं मन्दिरमें

स्थापित करनेयोग्य देवताओंका वर्णन करूँगा,

आप सुनें। पञ्चायतन मन्दिरमें जो बीचका प्रधान

मन्दिर हो, उसमें भगवान्‌ वासुदेवको स्थापित

करे। शेष चार मन्दिरोरमेसे अग्निकोणवाले मन्दिरमें

भगवान्‌ वामनकी, नैर्ऋत्यकोणमें नरसिंहकी,

वायव्यकोणमें हयग्रीवकी और ईशानकोणमें

वराहभगवान्‌की स्थापना करे। अथवा यदि बीच

ब्रह्माकी और ईशानकोणमें लिज्रमय शिवकी

स्थापना करे। अथवा ईशानमें रुद्ररूपकी स्थापना

करे। अथवा एक-एक आठ दिशाओंमें और एक

बीचमें--इस प्रकार कुल नौ मन्दिर बनवावे।

उनमेंसे बीचमें वासुदेवकी स्थापना करे और

पूर्वादि दिशाओंमें परशुराम-राम आदि मुख्य-

मुख्य नौ अवतारोंकी तथा इन्द्र आदि लोकपालोंकी

स्थापना करनी चाहिये। अथवा कुल नौ धामोमें

भगवान्‌ नारायणकी स्थापना करे तो अग्निकोणमें | पाँच मन्दिर मुख्य बनवावे। इनके मध्यमें भगवान्‌

दुर्गकी, नैर्क्रत्यकोणमें सूर्यकी, वायव्यकोणमें | पुरुषोत्तमकी स्थापना करे ॥ १--५॥

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