पद्चमिनी (लक्ष्मी) स्थापित करके उनके | स्थापित करे। यह गर्भाधान रातमें होना चाहिये।
पास मिट्टी, फूल, धातु और रत्नोंको रखे। इसके | उस समय आचार्यको गौ-वस्त्र आदि दान करे
बाद लोहे आदिके बने हुए गर्भपात्रमें, जिसका
विस्तार बारह अङ्गुल और ऊँचाई चार अङ्गुल
तथा अन्य लोगोंको भोजन दे। इस प्रकार गर्भपात्र
रखकर ओर ईटोको भी रखकर उस कुण्डको
हो, अस्त्रक पूजा करे। फिर ताँबेके बने हुए | भर दे। तत्पश्चात् मन्दिरकी ऊँचाईके अनुसार
कमलके आकारवाले एक पात्रे पृथ्वीका पूजन
करे ओर इस प्रकार प्रार्थना करे--“सम्पूर्ण
भूतोंकी ईश्वरी पृथ्वीदेवी! तुम पर्वतोके आसनसे
सुशोभित हो; चारों ओर समुद्रोंसे घिरी हुई हो;
एकान्तमें गर्भ धारण करो। वसिष्ठकन्या नन्दा!
वसुओं और प्रजाओंके सहित तुम मुझे आनन्दित
करो। भार्गवपुत्री जया! तुम प्रजाओंको विजय
दिलानेवाली हो। (मुझे भी विजय दो।) अज्भिराकी
पुत्री पूर्णा! तुम मेरी कामनाएँ पूर्ण करो। महर्षि
कश्यपकी कन्या भद्रा! तुम मेरी बुद्धि कल्याणमयी
कर दो। सम्पूर्ण बीजोंसे युक्त और समस्त रत्नों
एवं औषधोंसे सम्पन्न सुन्दरी जया देवी तथा
वसिष्ठपत्री नन्दा देवी! यहाँ आनन्दपूर्वक रम
जाओ। हे कश्यपकी कन्या भद्रा! तुम प्रजापतिकी
पुत्री हो, चारों ओर फैली हुई हो, परम महान्
हो; साथ ही सुन्दरी और सुकान्त हो, इस गृहमें
रमण करो | हे भार्गवी देवी ! तुम परम आश्चर्यमयी
हो; गन्ध और माल्य आदिसे सुशोभित एवं
पूजित हो; लोकोंकों ऐश्वर्य प्रदान करनेवाली
देवि! तुम इस गृहमें रमण करो। इस देशके
सम्राट्, इस नगरके राजा और इस घरके मालिकके
बाल-बच्चोंकों तथा मनुष्य आदि प्राणिर्योको
आनन्द देनेके लिये पशु आदि सम्पदाकी वृद्धि
कते।' इस प्रकार प्रार्थना करके वास्तु-कुण्डको
गोमूत्रसे सींचना चाहिये॥ १८--२८॥
यह सब विधि पूर्ण करके कुण्डमें गर्भको
प्रधानदेवताके पीठका निर्माण करे। 'उत्तम पीठ'
वह है, जो ऊँचाईमें मन्दिरके आधे विस्तारके
बराबर हो। उत्तम पीठकी अपेक्षा एक चौथाई
कम ऊँचाई होनेपर मध्यम पीठ कहलाता है
और उत्तम पीठकी आधी ऊँचाई होनेपर ' कनिष्ठ
पीट" होता है। पीठ-बन्धके ऊपर पुनः वास्तु-
याग (वास्तुदेवताका पूजन) करना चाहिये।
केवल पाद-प्रतिष्ठा करनेवाला मनुष्य भी सब
पापोंसे रहित होकर देवलोकमें आनन्द-भोग
करता है॥ २९--३२॥
मैं देवमन्दिर बनवा रहा हूँ, ऐसा जो मनसे
चिन्तन भी करता है, उसका शारीरिक पाप उसी
दिन नष्ट हो जाता है। फिर जो विधिपूर्वक
मन्दिर बनवाता है, उसके लिये तो कहना ही
क्या है? जो आठ इईंटोंका भी देवमन्दिर बनवाता
है, उसके फलकी सम्पत्तिका भी कोई वर्णन नहीं
कर सकता। इसीसे विशाल मन्दिर बनवानेसे
मिलनेवाले महान् फलका अनुमान कर लेना
चाहिये॥ ३३--३५॥
गाँवके बीचमें अथवा गाँवसे पूर्वदिशामें यदि
मन्दिर बनवाया जाय तो उसका दरवाजा पश्चिमकी
ओर रखना चाहिये और सब कोणोंमेंसे किसी
ओर बनवाना हो तो गाँवकी ओर दरवाजा रखे।
गाँवसे दक्षिण, उत्तर या पश्चिमदिशामें मन्दिर बने,
तो उसका दरवाजा पूर्वदिशाकी ओर रखना
चाहिये॥ ३६-३७॥
इस प्रकार आदि आग्रेय महापुराणमें 'सर्वाश्िलाविन्यासविधान आदिका कथत” नामक
इकतालीसवाँ अध्याय पूृद्र हुआ॥ ४१॥
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