Home
← पिछला
अगला →

८४२

+ अग्निपुराण क

(व कक रुसबक क ऊ ूुूईईऊइइककक कक कक छ डंऊ कक ककऊ कक क कक क कक क ज कक क कक ड डक ज के ज हक कस पक कज़ कफ कक जज उजक उघ क सूक5

देह, इन्द्रिय, मन तथा मुख--सबमें और सर्वत्र

भगवान्‌ श्रीहरि विराजमान हैं।' इस प्रकार

भगवान्‌का चिन्तन करते हुए जो प्राणोंका परित्याग

करता है, वह साक्षात्‌ श्रीहरिके स्वरूपमें मिल

जाता है। वह जो सर्वत्र व्यापक ब्रह्म है, जिससे

सबकी उत्पत्ति हुई है, जो सर्वस्वरूप है तथा यह

सब कुछ जिसका संस्थान (आकार-विशेष) है,

जो इन्द्रियोंसे ग्राह्य नहीं है, जिसका किसी नाम

आदिके द्वारा निर्देश नहीं किया जा सकता, जो

सुप्रतिष्ठित एवं सबसे परे है, उस परापर ब्रह्मके

रूपमें साक्षात्‌ भगवान्‌ विष्णु ही सबके हदये

विराजमान हैं। वे यज्ञके स्वामी तथा यज्ञस्वरूप

हैं; उन्हें कोई तो परब्रह्मरूपसे प्राप्त करना चाहते

हैं, कोई विष्णुरूपसे, कोई शिवरूपसे, कोई ब्रह्मा

और ईश्वररूपसे, कोई इन्द्रादि नामोसे तथा कोई

सूर्य, चन्द्रमा और कालरूपसे उन्हें पाना चाहते

है । ब्रह्मासे लेकर कीटतक सारे जगत्‌को विष्णुका

ही स्वरूप कहते है । वे भगवान्‌ विष्णु परब्रह्म

परमात्मा हैं, जिनके पास पहुँच जानेपर (जिन्हें

जान लेने या पा लेनेपर) फिर वहाँसे इस संसारमें

नहीं लौटना पड़ता। सुवर्ण-दान आदि बड़े-बड़े

दान तथा पुण्य-तीर्थोमिं स्नान करनेसे, ध्यान

लगानेसे, व्रत करनेसे, पूजासे और धर्मकी बातें

सुनने (एवं उनका पालन करने)-से उनकी प्राति

होती है''॥ ११--२० ३॥

“आत्माको 'रथी' समझो और शरीरको

'रथ'। बुद्धिको 'सारथा” जानो और मनको

“लगाम”। विवेकी पुरुष इन्द्रियोंको "घोडे" कहते

हैं और विषयोंको उनके “मार्ग! तथा शरीर,

इन्द्रिय और मनसहित आत्माको “भोक्ता' कहते

हैं। जो बुद्धिरूप सारथि अविवेकी होता है,

जो अपने मनरूपी लगामको कसकर नहीं

रखता, वह उत्तम पदको (परमात्माको) नहीं प्राप्त

होता; संसाररूपी गर्तमें गिरता है। परंतु जो

विवेकी होता है और मनको काबूमें रखता है,

वह उस परमपदको प्राप्त होता है, जिससे वह

फिर जन्म नहीं लेता। जो मनुष्य विवेकयुक्त

बुद्धिरूप सारथिसे सम्पन्न और मनरूपी लगामको

काबूमें रखनेवाला होता है, वही संसाररूपी

मार्गको पार करता है, जहाँ विष्णुका परमपद है।

इन्द्रियोंकी अपेक्षा उनके विषय पर हैं, विषयोंसे

परे मन है, मनसे परे बुद्धि है, बुद्धिसे परे महान्‌

आत्मा (महत्तत्त्व) है, महत्तत्त्वसे परे अव्यक्त

(मूलप्रकृति) है और अव्यक्तसे परे पुरुष (परमात्मा)

है। पुरुषसे परे कुछ भी नहीं है, वही सीमा है,

वही परमगति है। सम्पूर्ण भूतोंमें छिपा हुआ यह

आत्मा प्रकाशमें नहीं आता। सूक्ष्मदर्शी पुरुष

अपनी तीत्र एवं सूक्ष्म बुद्धिसे ही उसे देख पाते

हैं। विद्वान्‌ पुरुष वाणीको मनमें और मनको

विज्ञानमयी बुद्धिमें लीन करें। इसी प्रकार

बुद्धिको महत्तत्त्वे ओर महत्तत्त्वको शान्त आत्मा

लीन करे''॥ २१--२९१॥

*"यम-नियमादि साधनोंसे ब्रह्म ओर आत्माकी

एकताको जानकर मनुष्य सत्स्वरूप ब्रह्म ही हो

जाता है। अहिंसा, सत्य, अस्तेय (चोरीका

अभाव), ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह (संग्रह न

करना)- ये पाँच 'यम' कहलाते है । ' नियम" भी

पाँच ही हैं-शौच (बाहर-भीतरकी पवित्रता),

संतोष, उत्तम तप, स्वाध्याय और ईश्वरपूजा।

"आसन" जैठनेकी प्रक्रियाका नाम है; उसके

"पद्मासन ' आदि कई भेद है । प्राणवायुको जीतना

“प्राणायाम ' है। इन्दर्योका निग्रह ' प्रत्याहार!

कहलाता है। ब्रह्मन्‌! एक शुभ विषयमे जो

चित्तको स्थिरतापूर्वक स्थापित करना होता है,

* इस 'यमगीता'का आधार ' कठोपनिषद्‌ " क ' यम-नचिकेल - संवाद" है ।

← पिछला
अगला →