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* अग्निपुराण *

जानेवाला यज्ञ ' सात्विक" है। फलकी इच्छासे

किया हुआ यज्ञ "राजस ' और दम्भके लिये किया

जानेवाला यज्ञ ' तामस" है। श्रद्धा और मन्त्र

आदिसे युक्त एवं विधि-प्रतिपादित जो देवता

आदिकी पूजा तथा अहिंसा आदि तप है, उन्हें

“शारीरिक तप' कहते हैं। अब वाणीसे किये

जानेवाले तपको बताया जाता है। जिससे किसीको

उद्वेग न हो--ऐसा सत्य वचन, स्वाध्याय और

जप-यह “वाङ्मय तप" है। चित्तशुद्धि, मौन

और मनोनिग्रह-ये “मानस तप' है । कामनारहित

तप ' सात्विक" फल आदिके लिये किया जानेवाला

तप "राजस" तथा दूसरोंकों पीड़ा देनेके लिये

किया हुआ तप * तामस ' कहलाता है । उत्तम देश,

काल और पात्रमे दिया हुआ दान “सात्त्विक' है,

परत्युपकारके लिये दिया जानेवाला दान 'राजस'

है तथा अयोग्य देश, काल आदिमे अनादरपूर्वक

दिया हुआ दान " तामस ' कहा गया है । * ॐ

“तत्‌ और 'सत्‌'-ये परब्रह्म परमात्माके तीन

प्रकारके नाम बताये गये हैं। यज्ञ-दान आदि कर्म

मनुष्योंको भोग एवं मोक्ष प्रदान करनेवाले है ।

जिन्होंने कामनाओंका त्याग नहीं किया है, उन

सकामी पुरुषोकि कर्मका बुरा, भला और मिला

हआ- तीन प्रकारका फल होता है। यह फल

मृत्युके पश्चात्‌ प्राप्त होता है। संन्यासी (त्यागी

पुरुषों )-के कर्मोंका कभी कोई फल नहीं होता।

मोहवश जो कर्मोंका त्याग किया जाता है, वह

तामस' है, शरीरको कष्ट पहुँचनेके भयसे किया

हुआ त्याग 'राजस' है तथा कामनाके त्यागसे

सम्पन्न होनेवाला त्याग सात्विक" कहलाता है।

अधिष्ठान, कर्ता, भिन्न-भिन्न करण, नाना प्रकारकी

अलग-अलग चेष्टाएँ तथा दैव-ये पाँच ही

कर्मके कारण हैं। सब भूतोंमें एक परमात्माका

ज्ञान 'सात्त्विक', भेदज्ञान राजस ' और अतात्त्विक

ज्ञान 'तामस' है। निष्काम भावसे किया हुआ

कर्म 'सात्त्विक', कामनाके लिये किया जानेवाला

'राजस' तथा मोहवश किया हुआ कर्म 'तामस'

है। कार्यकी सिद्धि और असिद्धिमें सम (निर्विकार)

रहनेवाला कर्ता 'सात्तविक', हर्ष और शोक

करनेवाला 'राजस' तथा शठ और आलसी कर्ता

“तामस कहलाता है। कार्य -अकार्यके तत्त्वको

समझनेवाली बुद्धि ' सात्विकी ', उसे ठीक-ठीक

न जाननेवाली बुद्धि "राजसी ' तथा विपरीत

धारणा रखनेवाली बुद्धि " तामसी ' मानी गयौ है ।

मनको धारण करनेवाली धृति ' सात्विकी ', प्रीतिकी

कामनावाली धृति "राजसी ' तथा शोक आदिको

धारण करनेवाली धृति ' तामसी" है। जिसका

परिणाम सुखद हो, वह सत्त्वसे उत्पन्न होनेवाला

"सात्तिक सुख ' है। जो आरम्भमें सुखद प्रतीत

होनेपर भी परिणामे दुःखद हो वह “राजस

सुख' है तथा जो आदि और अन्तर्मे भी दुःख-

ही-दुःख है, वह आपाततः प्रतीत होनेवाला सुख

"तामस" कहा गया है। जिससे सव भूतोंकी

उत्पत्ति हुई है और जिससे यह सम्पूर्ण जगत्‌ व्याप्त

है, उस विष्णुकों अपने-अपने स्वाभाविक कर्मद्वारा

पूजकर मनुष्य परम सिद्धिको प्राप्त कर लेता है।

जो सब अवस्थाओंमें ओर सर्वदा मन, वाणी एवं

कर्मकि द्वारा ब्रह्मासे लेकर तुच्छ कीटपर्वन्त सम्पूर्ण

जगत्‌को भगवान्‌ विष्णुका स्वरूप समझता है,

वह भगवान्मे भक्ति रखनेवाला भागवत पुरुष

सिद्धिको प्राप्त होता है" ॥ ३४-५८ ॥

इस प्रकार आदि आनेय महापुराणमें 'गीता-सार-निरूपण” नामक

तीन सौ इक्यासीवां अध्याय पूरा हुआ॥ ३८१ ॥

जन

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