करके आसक्ति छोड़कर कर्म करता है, वह
पापसे लिप्त नहीं होता-ठीक उसी तरह
कमलका पत्ता पानीसे लिप्त नहीं होता। जिसका
अन्तःकरण योगयुक्तं है--परमानन्दमय परमात्मामें
स्थित है तथा जो सर्वत्र समान दृष्टि रखनेवाला है,
वह योगी आत्माको सम्पूर्ण भूतोंमें तथा सम्पूर्ण
भूतोंको आत्मामें देखता है। योगभ्रष्ट पुरुष शुद्ध
आचार-विचारवाले श्रीमानों (धनवानों)-के घरमें
जन्म लेता है। तात! कल्याणमय शुभ कर्मोंका
अनुष्ठान करनेवाला पुरुष कभी दुर्गतिको नहीं प्राप्त
होता॥ २-११\॥
“मेरी यह त्रिगुणमयी माया अलौकिक है;
इसका पार पाना बहुत कठिन है। जो केवल मेरी
शरण लेते हैं, वे ही इस मायाको लांघ पाते हैं।
भरतश्रेष्ठ ! आर्त, जिज्ञासु, अर्थार्थी और ज्ञानी- ये
चार प्रकारके मनुष्य मेरा भजन करते है । इनमेंसे
ज्ञानी तो मुझसे एकभूत होकर स्थित रहता है।
अविनाशी परम-तत्त्व ( सच्विदानन्दमय परमात्मा)
"ब्रह्म ' है, स्वभाव अर्थात् जीवात्माको “अध्यात्म!
कहते हैं, भूतोंकी उत्पत्ति और वृद्धि करनेवाले
विसर्गका (यज्ञ-दान आदिके निमित्त किये जानेवाले
द्रव्यादिके त्यागका) नाम “कर्म' है, विनाशशील
पदार्थ "अधिभूत" है तथा पुरुष (हिरण्यगर्भ)
'अधिदैवत' है। देहधारियोमें श्रेष्ठ अर्जुन! इस
देहके भीतर मैं वासुदेव ही “अधियज्ञ' हँ
अन्तकालमें मेरा स्मरण करनेवाला पुरुष मेरे
स्वरूपको प्राप्त होता है, इसमें तनिक भी संदेह
नहीं है। मनुष्य अन्तकालमें जिस-जिस भावका
स्मरण करते हुए अपने देहका परित्याग करता है,
उसीको वह प्राप्त होता है। मृत्युके समय जो
प्राणोंको भौंहोंके मध्यमें स्थापित करके ' ओम्'--
इस एकाक्षर ब्रह्मका उच्चारण करते हुए देहत्याग
करता है, वह मुझ परमेश्वरको ही प्राप्त करता है।
ब्रह्माजीसे लेकर तुच्छ कौटतक जो कुछ दिखायी
देता है, सब मेरी ही विभूतियाँ हैं। जितने भी
श्रीसम्पन्न॒ और शक्तिशाली प्राणी हैं, सब मेरे
अंश हैं। “मैं अकेला ही सम्पूर्ण विश्वके रूपमें
स्थित हूँ'--ऐसा जानकर मनुष्य मुक्त हो जाता
है'"॥ १२--१९॥
“यह शरीर “क्षेत्र” है; जो इसे जानता है,
उसको क्षेत्रज्ञ' कहा गया है। क्षत्र और
'क्षेत्रज्ञुकों जो यथार्थरूपसे जानना है, वही मेरे
मतमें “ज्ञान' है। पाँच महाभूत, अहंकार, बुद्धि,
अव्यक्त (मूलप्रकृति), दस इन्द्रियाँ, एक मन,
पाँच इन्द्रियोंक विषय, इच्छा, देष, सुख, दुःख,
स्थूल शरीर, चेतना और धृति--यह विकारोंसहित
*क्षेत्र' है, जिसे यहाँ संक्षेपसे बतलाया गया है।
अभिमानशून्यता, दम्भका अभाव, अहिंसा, क्षमा,
सरलता, गुरुसेवा, बाहर-भीतरकी शुद्धि,
अन्तःकरणकी स्थिरता, मन, इन्द्रिय एवं शरीरका
निग्रह, विषयभोगोंमें आसक्तिका अभाव, अहंकारका
न होना, जन्म, मृत्यु, जरा तथा रोग आदिमे
दुःखरूप दोषका बारंबार विचार करना, पुत्र, स्त्री
और गृह आदिमें आसक्ति और ममताका अभाव,
प्रिय और अप्रियकी प्राप्तिमें सदा ही समानचित्त
रहना (हर्ष-शोकके वशीभूत न होना), मुझ
परमेश्वरमें अनन्य-भावसे अविचल भक्तिका होना,
पवित्र एवं एकान्त स्थाने रहनेका स्वभाव,
विषयी मनुष्योंके समुदायमें प्रेमक अभाव,
अध्यात्म-ज्ञानमें स्थिति तथा तत्त्व-ज्ञानस्वरूप
परमेश्वरका निरन्तर दर्शन --यह सब 'ज्ञान' कहा
गया है और जो इसके विपरीत है, वह “अज्ञान'
है'॥ २०--२७॥
“अब जो 'ज्ञेय' अर्थात् जाननेके योग्य है,