* अध्याय ३८९ * ८३७
ब्राह्मण ( जडभरत ) कहते है -- राजन्! निदाघ | भेदोंसे अनेक-सा दिखायी देता है, उसी प्रकार
उस उपदेशके प्रभावसे अद्वैतपरायण हो गये । अब | भ्रानतदृष्टिवाले पुरुषोंको एक ही आत्मा भिन्न-
वे सम्पूर्ण प्राणिर्योको अपनेसे अभिन्न देखने लगे। | भिन्न रूपोंमें दिखायी देता है ॥ ६५--६७॥
उन्होंने ज्ञानसे मोक्ष प्राप्त किया था, उसी प्रकार | अग्निदेव कहते हैं--वसिष्ठजी ! इस सारभूत
तुम भी प्राप्त करोगे। तुम, मैं तथा यह सम्पूर्ण | ज्ञानके प्रभावसे सौवीरनरेश भव-बन्धनसे मुक्त हो
जगत्-सब एकमात्र व्यापक विष्णुका ही स्वरूप | गये । ज्ञानस्वरूप ब्रह्म ही इस अज्ञानमय संसारवृश्षका
है। जैसे एक ही आकाश नीले-पीले आदि | शत्रु है, इसका निरन्तर चिन्तन करते रहिये ॥ ६८ ॥
इस प्रकार आदि आग्नेय महापुराणे "अद्वैत ब्रह्मका निरूपण ' नामक
तीन सौ असौकवां अध्याय पूरा हुआ॥ ३८० ॥
तीन सौ इक्यासीवां अध्याय
गीता-सार
अब मैं गीताका सार बतलाऊँगा, जो समस्त
गीताका उत्तम-से-उत्तम अंश है। पूर्वकाले
भगवान् श्रीकृष्णने अर्जुनको उसका उपदेश दिया
था। वह भोग तथा मोक्ष-दोनोंको देनेवाला
है॥१॥
श्रीभगवानने कहा--अर्जुन! जिसका प्राण
चला गया है अथवा जिसका प्राण अभी नहीं गया
है, ऐसे मरे हुए अथवा जीवित किसी भी
देहधारीके लिये शोक करना उचित नहीं है;
क्योंकि आत्मा अजन्मा, अजर, अमर तथा अभेद्य
है, इसलिये शोक आदिको छोड़ देना चाहिये।
विषर्योका चिन्तन करनेवाले पुरुषकी उनमें आसक्ति
हो जाती है; आसक्तिसे काम, कामसे क्रोध और
क्रोधसे अत्यन्त मोह (विवेकका अभाव) होता
है । मोहसे स्मरणशक्तिका हास और उससे बुद्धिका
नाश हो जाता है । बुद्धिके नाशसे उसका सर्वनाश
हो जाता है। सत्पुरु्षोका सङ्ग करनेसे बुरे सङ्ग
छूट जाते हैं-(आसक्तियाँ दूर हो जाती है) ।
फिर मनुष्य अन्य सब कामनाओंका त्याग करके
केवल मोक्षकी कामना रखता है। कामनाओकि
त्यागसे मनुष्यकी आत्मा अर्थात् अपने स्वरूपम
स्थिति होती है, उस समय वह “स्थिरप्रज्ञ'
कहलाता है । सम्पूर्ण प्राणियोकि लिये जो रात्रि है,
अर्थात् समस्त जीव जिसकी ओरसे बेखबर
होकर सो रहे हैं, उस परमात्माके स्वरूपे
भगवत्प्राप्त संयमी (योगी) पुरुष जागता रहता है
तथा जिस क्षणभङ्गुरं सांसारिक सुखमें सब भूत-
प्राणी जागते हैं, अर्थात् जो विषय-भोग उनके
सामने दिनके समान प्रकट हैं, वह ज्ञानी मुनिके
लिये रात्रिके ही समान है। जो अपने-आपमें ही
संतुष्ट है, उसके लिये कोई कर्तव्य शेष नहीं है।
इस संसारमें उस आत्माराम पुरुषको न तो कुछ
करनेसे प्रयोजन है और न न करनेसे ही।
महाबाहो ! जो गुण-विभाग और कर्म-विभागके
तत्त्वको जानता है, वह यह समझकर कि सम्पूर्ण
गुण गुणोंमें ही बरत रहे हैं, कहीं आसक्त नहीं
होता। अर्जुन! तुम ज्ञानरूपी नौकाका सहारा
लेनेसे निश्चय ही सम्पूर्ण पापोंकों तर जाओगे।
ज्ञानरूपी अग्नि सब कर्मोंको जलाकर भस्म कर
डालती है। जो सब कर्मोंको परमात्मामें अर्पण