र = कर
निदाघने उनकी शिष्यता ऋतुसे विद्या
पढ़ लेनेके पश्चात् निदाघ देविका नदीके
एक नगरमे जाकर रहने लगे। ऋतुने अपने
शिष्यके निवासस्थानका पता लगा लिया था।
हजार दिव्य वर्ष बीतनेके पश्चात् एक दिन ऋतु
निदाघको देखनेके लिये गये। उस समय निदाघ
बलिवैश्वदेवके अनन्तर अन्न-भोजन करके अपने
शिष्यसे कह रहे थे--' भोजनके बाद मुझे तृप्ति हुई
है; क्योंकि भोजन ही अक्षय-तृप्ति प्रदान करनेवाला
है।' (यह कहकर बे तत्काल आये हुए अतिथिसे
भी तृप्तिके विषयमें पूछने लगे) ॥ ४१--४८॥
तब ऋतुने कहा-ब्राह्मण! जिसको भूख
लगी होती है, उसीको भोजनके पश्चात् तृप्ति होती
है। मुझे तो कभी भूख ही नहीं लगी, फिर मेरी
तृप्तिक विषयमे क्यों पूछते हो? भूख और प्यास
देहके धर्म हैं। मुझ आत्माका ये कभी स्पर्श नहीं
करते। तुमने पूछा है, इसलिये कहता हूँ। मुझे
सदा ही तृप्ति बनी रहती है। पुरुष (आत्मा)
आकाशकी भाँति सर्वत्र व्याप्त है और मैं वह
प्रत्यगात्मा ही हूँ; अतः तुमने जो मुझसे यह पूछा
कि “आप कहाँसे आते हैं ?' यह प्रश्न कैसे सार्थक
हो सकता है? मैं न कहीं जाता हूँ, न आता हूँ
और न किसी एक स्थानमें रहता हूँ। न तुम मुझसे
भिन्न हो, न मैं तुमसे अलग हूँ। जैसे मिट्टीका घर
मिट्टीसे लीपनेपर सुदृढ़ होता है, उसी प्रकार यह
पार्थिव देह ही पार्थिव अन्नके परमाणुओंसे पुष्ट
होता है। ब्रह्मन्! मैं तुम्हारा आचार्य ऋतु हूँ और
तुम्हें ज्ञान देनेके लिये यहाँ आया हूँ; अब
जाऊँगा। तुम्हें परमार्थतत्वका उपदेश कर दिया।
इस प्रकार तुम इस सम्पूर्ण जगत्कों एकमात्र
वासुदेवसंजञक परमात्माका ही स्वरूप समझो;
इसमें भेदका सर्वथा अभाव है॥४९--५५॥
शात् एक हजार वर्ष व्यतीते होनेपर ऋतु
पुनः उस नगरमे गये । वहाँ जाकर उन्होंने देखा--
निदाघ नगरके पास एकान्त स्थाने खड़े हैं।'
तब वे उनसे बोले--' भैया! इस एकान्त स्थाने
क्यों खड़े हो ?'॥ ५६ ॥
निदाघने कहा--ब्रह्मन्! मार्गमे मनुष्योंकी
बहुत बड़ी भीड़ खड़ी है; क्योंकि ये नरेश इस
समय इस रमणीय नगरमें प्रवेश करना चाहते हैं,
इसीलिये मैं यहाँ ठहर गया हूं ॥ ५७॥
ऋतुने पूछा--द्विजश्रेष्ठ तुम यहाँकी सब बातें
जानते हो; बताओ। इनमें कौन नरेश हैं और कौन
दूसरे लोग हैं 2॥५८॥
निदाघने कहा-- ब्रह्मन्! जो इस पर्वतशिखरके
समान खड़े हुए मतवाले गजराजपर चढ़े हैं, वही
ये नरेश हैं तथा जो उन्हें चारों ओरसे घेरकर खड़े
हैं, वे ही दूसरे लोग हैं। यह नीचेवाला जीव हाथी
है और ऊपर बैठे हुए सज्जन महाराज हैं ॥५९ ६ ॥
ऋतुने कहा--' मुझे समझाकर बताओ, इनमें
कौन राजा है और कौन हाथी ?" निदाघ बोले--
*अच्छा, बतलाता हूँ।' यह कहकर निदाघ ऋतुके
ऊपर चढ़ गये और बोले--' अब दृष्टान्त देखकर
तुम बाहनकों समझ लो। मैं तुम्हारे ऊपर राजाके
समान बैठा हूँ और तुम मेरे नीचे हाथीके समान
खड़े हो।' तब ऋतुने निदाघसे कहा--'मैं कौन
हूँ और तुम्हें क्या कहूँ?” इतना सुनते ही निदाघ
उतरकर उनके चरणोंमें पड़ गये और बोले--
“निश्चय ही आप मेरे गुरुजी महाराज हैं; क्योंकि
दूसरे किसीका हृदय ऐसा नहीं है, जो निरन्तर
अद्वैत-संस्कारसे सुसंस्कृत रहता हो।' ऋतुने निदाघसे
कहा--' मैं तुम्हें ब्रह्यका बोध करानेके लिये आया
था और परमार्थ-सारभूत अद्वैततत्त्वका दर्शन तुम्हें
करा दिया'॥६०--६४॥