+ अध्याय ३८० *
होता है, अतः मूतं आदिका ही चिन्तन करे। ऐसा | साथ एकीभूत--अभिन्न हो जाता है। भेदकी
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करनेवाला मनुष्य भगवद्धावको प्राप्त हो परमात्माके | प्रतीति तो अज्ञानसे ही होती है''॥ २६--३२॥
इस प्रकार आदि आग्नेय महापुदणमों 'ब्रह्मज्ञाननिरूपण” नामक
तीन सौ उन्यासीयाँ अध्याय पूरा हुआ॥ ३७९ ॥
तीन सौ असीवाँ अध्याय
जडभरत और सौवीर-नरेशका संवाद--अद्दैत ब्रह्मविज्ञानका वर्णन
अब मैं उस “अद्ठैत ब्रह्मविज्ञान'का वर्णन
करूँगा, जिसे भरतने ( सौवीरराजको ) बतलाया
था। प्राचीनकालकी बात है, राजा भरत शालग्रामक्षेत्रमें
रहकर भगवान् वासुदेवकी पूजा आदि करते हुए
तपस्या कर रहे थे। उनकी एक मृगके प्रति
आसक्ति हो गयी थी, इसलिये अन्तकालमे उसीका
स्मरण करते हुए प्राण त्यागनेके कारण उन्हें मृग
होना पड़ा। मृगयोनिरमे भी वे "जातिस्मर ' हुए--
उन्हें पूर्वजन्मकी बातोंका स्मरण रहा। अतः उस
मृगशरीरका परित्याग करके वे स्वयं ही योगबलसे
एक ब्राह्मणके रूपमें प्रकट हुए। उन्हें अद्वैत
ब्रह्मका पूर्ण बोध था। वे साक्षात् ब्रह्मस्वरूप थे,
तो भी लोकमें जडवत् (ज्ञानशून्य मूककी भाँति)
व्यवहार करते थे। उन्हें दृष्ट-पुष्ट देखकर सौवीर-
नरेशके सेवकने बेगारमें लगानेके योग्य समझा
(और राजाकी पालकी ढोनेमें नियुक्त कर दिया) ।
सेवकके कहनेसे वे सौवीरराजकी पालकी ढोने
लगे। यद्यपि वे ज्ञानी थे, तथापि बेगारमें पकड़
जानेपर अपने प्रारब्धभोगका क्षय करनेके लिये
राजाका भार वहन करने लगे; परंतु उनकी गति
मन्द थी। वे पालकीमें पीछेकी ओर लगे थे तथा
उनके सिवा दूसरे जितने कहार थे, वे सब-के-
सब तेज चल रहे थे। राजाने देखा, “अन्य कार
शीघ्रगामी हैं तथा तीव्रगतिसे चल रहे हैं। यह जो
नया आया है, इसकी गति बहुत मन्द है।' तब
वे बोले॥ १--५॥
राजाने कहा- अरे! क्या तू थक गया? अभी
तो तूने थोड़ी ही दूरतक मेरी पालकी ढोयी है। क्या
परिश्रम नहीं सहा जाता? क्या तू मोटा-ताजा नहीं
है? देखनेमें तो खूब मुस्टंड जान पड़ता है॥६॥
ब्राह्मणने कहा--राजन्! न मैं मोटा हूँ, न
मैंने तुम्हारी पालकी ढोयी है, न मुझे थकावट
आयी है, न परिश्रम करना पड़ा है और न मुझपर
तुम्हारा कुछ भार ही है। पृथ्वीपर दोनों पैर हैं,
पैरॉपर जल्भाएँ हैं, जद्बाओंके ऊपर ऊरु और
ऊरुओंके ऊपर उदर (पेट) है। उदरके ऊपर
वक्षःस्थल, भुजाएँ और कंधे हैं तथा कंधोंके
ऊपर यह पालकी रखी गयी है। फिर मेरे ऊपर
यहाँ कौन-सा भार है? इस पालकीपर तुम्हारा
कहा जानेवाला यह शरीर रखा हुआ है। वास्तवमें
तुम वहाँ (पालकीमें) हो और मैं यहाँ (पृथ्वी)
पर हँ--ऐसा जो कहा जाता है, वह सब मिथ्या
है। सौवीरनरेश। मैं, तुम तथा अन्य जितने भी
जीव हैं, सबका भार पञ्ञभूतोंके द्वारा ही ढोया जा
रहा है। ये पञ्चभूत भी गुणोंके प्रवाहमें पड़कर
चल रहे हैं। पृथ्वीनाथ! सत्त्व आदि गुण कर्मोंके
अधीन हैं तथा कर्म अविद्याके द्वारा संचित हैं, जो
सम्पूर्ण जीवोंमें वर्तमान हैं। आत्मा तो शुद्ध, अक्षर
(अविनाशी), शान्त, निर्गुण और प्रकृतिसे परे है।
सम्पूर्ण प्राणियोंमें एक ही आत्मा है। उसकी न