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* अध्याय ३७९ *

मैं कार्य-कारणसे भिन्न ज्योतिर्मय परब्रह्म हूँ।| आनन्द और अद्वैतरूप ब्रह्म हूँ। मैं विज्ञानयुक्त

मैं देह, इन्द्रिय, मन, बुद्धि, प्राण और अहंकाररहित | ब्रह्म हूँ। मैं सर्वथा मुक्त और प्रणवरूप हूँ। मैं

तथा जाग्रत्‌, स्वप्न और सुषुप्ति आदिसे मुक्त | ज्योतिर्मय परब्रह्म हूँ और मोक्ष देनेवाला समाधिरूप

तुरीय ब्रह्म हूँ। मैं नित्य, शुद्ध, बुद्ध, मुक्त, सत्य, | परमात्मा भी मैं ही हं ॥ १--२३॥

इस प्रकार आदि आग्नेय महापुराणमें “ब्रह्मज्ञावनिरूपण ' नामक

तीन सौ अठहत्तरवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥ ३७८ ¢

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तीन सौ उन्यासीवांँं अध्याय

भगवत्स्वरूपका वर्णन तथा ब्रह्मभावकी प्रातिका उपाय

अग्निदेव कहते हैं--वसिष्ठजी! धर्मात्मा | महामुने ! उनकी प्राप्तिके दो हेतु बताये गये

पुरुष यज्ञके द्वारा देवताओंको, तपस्याद्वारा विराट्के | है -, ज्ञान" और “कर्म'। ' ज्ान' दो प्रकारका

पदको, कर्मके संन्यासद्वारा ब्रह्मपदको, वैराग्यसे

प्रकृतिमे लयको और ज्ञानसे कैवल्यपद (मोक्ष) -

को प्राप्त होता है--इस प्रकार ये पाँच गतियाँ

मानी गयी हैं। प्रसन्नता, संताप और विषाद

आदिसे निवृत्त होना “बैराग्य' है। जो कर्म

किये जा चुके हैं तथा जो अभी नहीं किये गये

है, उन सब (की आसक्ति, फलेच्छा और

संकल्प) का परित्याग ' संन्यास" कहलाता है।

ऐसा हो जानेपर अव्यक्तसे लेकर विशेषपर्यन्त

सभी पदार्थोके प्रति अपने मनमें कोई विकार

नहीं रह जाता। जड और चेतनकी भित्नताका

ज्ञान (विवेक) होनेसे ही “परमार्थज्ञान' की

प्राप्ति बतलायी जाती है । परमात्मा सबके आधार

हैं; वे ही परमेश्वर हैं। वेदों और वेदान्तो

(उपनिषदों) में " विष्णु" नामसे उनका यशोगान

किया जाता है। वे यज्ञोके स्वामी ह । प्रवृत्तिमार्गसे

चलनेवाले लोग यज्ञपुरुषके रूपमे उनका यजन

करते हैं तथा निवृत्तिमागकि पथिक ज्ञानयोगके

द्वारा उन ज्ञानस्वरूप परमात्माका साक्षात्कार करते

हैं। हस्व, दीर्घं और प्लुत आदि वचन उन

पुरुषोत्तमके ही स्वरूप हैँ ॥ १--६॥

है-' आगमजन्य' और ' विवेकजन्य '। शब्दब्रह्म

(वेदादि शास्त्र और प्रणव) का बोध ' आगमजन्य'

है तथा परब्रह्मका ज्ञान 'विवेकजन्य' ज्ञान है।

"ब्रह्म" दो प्रकारसे जाननेयोग्य है-' शब्दब्रह्म

और “परब्रह्म'। वेदादि विद्याको * शब्दब्रह्म" या

“अपरब्रह्म' कहते हैं और सत्स्वरूप अक्षरतत्तव

*परन्रह्म' कहलाता है। यह परब्रह्म ही 'भगवत्‌'

शब्दका मुख्य वाच्यार्थ है। पूजा (सम्मान) आदि

अन्य अर्थो्में जो उसका प्रयोग होता है, वह

औपचारिक (गौण) है। महामुने! "भगवत्‌!

शब्दे जो * भकार ' है, उसके दो अर्थ है - पोषण

करनेवाला और सबका आधार तथा * गकार "का

अर्थं है- नेता (कर्मफलकी प्राति करानेवाला),

गमयिता (प्रेरक) और ष्टा (सृष्टि करनेवाला) ।

सम्पूर्ण ऐश्वर्य, पराक्रम (अथवा धर्म), यश, श्री,

ज्ञान और वैराग्य-इन छःका नाम 'भग' है।

विष्णुम सम्पूर्ण भूत निवास करते है । वे भगवान्‌

सबके धारक तथा ब्रह्मा, विष्णु तथा शिव -इन

तीन रूपॉमें विराजमान हैं। अतः श्रीहरिमें ही

*भ्रगवान्‌' पद मुख्यवृत्तिसे विद्यमान है, अन्य

किसीके लिये तो उसका उपचार (गौणवृत्ति)-से

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