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पुराण, विद्या, उपनिषद्‌, श्लोक, सूत्र, भाष्य तथा

अन्य वाङ्मयकी अभिव्यक्ति हुई है, वही “परमात्मा'

है। पितृयानमार्गकी उपवीथीसे लेकर अगस्त्य

ताराके बीचका जो मार्ग है, उससे संतानकी

कामनावाले अग्निहोत्री लोग स्वर्गमें जाते हैं। जो

भलीभोति दानमे तत्पर तथा आठ गुणोंसे युक्त

होते हैं, वे भी उसी भाँति यात्रा करते हैं। अठासी

हजार गृहस्थ मुनि हैं, जो सब धर्मोंके प्रवर्तक हैं;

वे ही पुनरावृत्तिक बीज (कारण) माने गये हैं।

वे सप्तर्षियों तथा नागवीथीके बीचके मार्गसे

देवलोकमें गये हैं। उतने ही (अर्थात्‌ अठासी

हजार) मुनि और भी हैं, जो सब प्रकारके

आरामोंसे रहित हैं। वे तपस्या, ब्रह्मचर्य, आसक्ति,

त्याग तथा मेधाशक्तिके प्रभावसे कल्पपर्यन्त भिन्न-

भिन्न दिव्यलोकोंमें निवास करते है ॥ २०-३५॥

वेदोंका निरन्तर स्वाध्याय, निष्काम यज्ञ,

ब्रह्मचर्य, तप, इन्द्रिय-संयम, श्रद्धा, उपवास तथा

सत्य-भाषण-- ये आत्मज्ञानके हेतु हैँ । समस्त

द्विजातियोंको उचित है कि वे सत्वगुणका आश्रय

लेकर आत्मतत्त्वका श्रवेण, मनन, निदिध्यासन

एवं साक्षात्कार कर । जो इसे इस प्रकार जानते हैं,

जो वानप्रस्थ आश्रमका आश्रय ले चुके हैं और

परम श्रद्धासे युक्त हो सत्यकी उपासना करते हैं,

वे क्रमशः अग्नि, दिन, शुक्लपक्ष, उत्तरायण,

देवलोक, सूर्यमण्डल तथा विद्युत्‌के अभिमानी

देवताओकि लोकॉमें जाते है । तदनन्तर मानस

पुरुष वहाँ आकर उन्हें साथ ले जा, ब्रह्मलोकका

निवासी बना देता है; उनकी इस लोकमें

पुनरावृत्ति नहीं होती। जो लोग यज्ञ, तप और

दानसे स्वर्गलोकपर अधिकार प्राप्त करते है,

वे क्रमशः धूम, रात्रि, कृष्णपक्ष, दक्षिणायन,

पितृलोक तथा चन्द्रमाके अभिमानी देवताओंके

लोकम जाते हैं और फिर आकाश, वायु

एवं जलके मार्गसे होते हुए इस पृथ्वीपर

लौट आते हैं। इस प्रकार वे इस लोकमें जन्म

लेते और मृत्युके बाद पुनः उसी मार्गसे यात्रा

करते हैं। जो जीवात्माके इन दोनों मार्गोको

नहीं जानता, वह साँप, पतंग अथवा कीड़ा-

मकोड़ा होता है। हृदयाकाशमें दीपककी भाँति

प्रकाशमान ब्रह्मका ध्यान करनेसे जीव अमृतस्वरूप

हो जाता है। जो न्यायसे धनका उपार्जन करनेवाला,

तत््वज्ञानमें स्थित, अतिधि-प्रेमी, श्राद्धकर्ता

तथा सत्यवादी है, वह गृहस्थ भी मुक्त हो

जाता है॥ ३६--४४॥

इस अकार आदि आरनेय महापुराणमें “ समाधिनिरूपण ” तामक

तीन सौ छिहतरवाँ अध्याय पूरा हुआ॥ ३७६ #

तीन सौ सतहत्तरवाँ अध्याय

श्रवण एवं मननरूप ज्ञान

अग्निदेव कहते हैं-अब मैं संसाररूप | वस्तुओंकी भाँति यह देह दृश्य होनेके कारण

अज्ञानजनित बन्धनसे छुटकारा पानेके लिये | आत्मा नहीं है; क्योकि सो जानेपर अथवा मृत्यु

"ब्रह्मज्ञान "का वर्णन करता हूँ। “यह आत्मा | हो जानेपर यह बात निश्चितरूपसे समझमें आ

परब्रह्म है ओर वह ब्रह्म मैं ही हूँ।' ऐसा निश्चय | जाती है कि 'देहसे आत्मा भिन्न है'। यदि देह

हो जानेपर मनुष्य मुक्त हो जाता है। घट आदि | ही आत्मा होता तो सोने या मरनेके बाद भी

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