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* अध्याय ३७५ *

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रखा जाता है ओर वह अपने लक्ष्यसे विचलित

नहीं होता, यही अवस्था “ धारणा" कहलाती है ।

रह आयामकी ' धारणा" होती है, बारह ' धारणा "का

"ध्यान" होता है तथा बारह ध्यानपर्यन्त जो

मनकी एकाग्रता है, उसे "समाधि" कहते है ।

जिसका मन धारणाके अभ्यासमें लगा हुआ है,

उसी अवस्थामें यदि उसके प्राणोंका परित्याग हो

जाय तो वह पुरुष अपने इक्कीस पीढ़ीका उद्धार

करके अत्यन्त उत्कृष्ट स्वर्गपदको प्राप्त होता है ।

योगि्योकि जिस-जिस अङ्गे व्याधिकौ सम्भावना

हो, उस-उस अङ्गको बुद्धिसे व्याप्त करके तत्त्वोंकी

धारणा करनी चाहिये। द्विजोत्तम ! आग्नेयी, वारुणी,

एेशानी और अमृतात्मिका-ये विष्णुकौ चार

प्रकारकी धारणा करनी चाहिये। उस समय

अग्नियुक्त शिखामन्त्रका, जिसके अन्तम "फट्‌!

शब्दका प्रयोग होता है, जप करना उचित है।

नाड़ियोंके दवारा विकट, दिव्य एवं शुभ शूलाग्रका

वेधनं करे। पैरके अँगूठेसे लेकर कपोलतक

किरणोंका समूह व्याप्त है और वह बड़ी तेजीके

साथ ऊपर-नीचे तथा इधर-उधर फैल रहा है,

ऐसी भावना करे। महामुने! श्रेष्ठ साधकको

तबतक रश्मि-मण्डलका चिन्तन करते रहना

चाहिये, जबतक कि वह अपने सम्पूर्ण शरीरको

उसके भीतर भस्म होता न देखे। तदनन्तर उस

धारणाका उपसंहार करे। इसके द्वारा द्विजगण

शीत और श्लेष्मा आदि रोग तथा अपने

पापोंका विनाश करते हैं (यह 'आग्नेयी धारणा!

है) ॥ १--१० ॥

तत्पश्चात्‌ धीरभावसे विचार करते हुए मस्तक

और कण्ठके अधोमुख होनेका चिन्तन करे। उस

ऐसी धारणा करे कि जलके अनन्त कण प्रकट

होकर एक-दूसरेसे मिलकर हिमराशिको उत्पन्न

करते हैं और उससे इस पृथ्वीपर जलकी धाराएँ

प्रवाहित होकर सम्पूर्णं विश्वको आप्लावित कर रही

हैं। इस प्रकार उस हिमस्पर्शसे शीतल अमृतस्वरूप

जलके द्वारा क्षोभवश ब्रह्मसन्श्रसे लेकर मूलाधारपर्यन्त

सम्पूर्ण चक्र-मण्डलको आप्लावित करके सुषुम्णा

नाड़ीके भीतर होकर पूर्ण चन्द्रमण्डलका चिन्तन

करे। भूख-प्यास आदिके क्रमसे प्राप्त होनेवाले

क्लेशोंसे अत्यन्त पीड़ित होकर अपनी तुष्टि

लिये इस “वारुणी धारणा' का चिन्तन करना

चाहिये तथा उस समय आलस्य छोडकर विष्णु-

मन्त्रका जप करना भी उचित है। यह "वारुणी

धारणा' बतलायी गयी, अब 'ऐशानी धारणा'का

वर्णन सुनिये॥ ११--१५॥

प्राण और अपानका क्षय होनेपर हृदयाकाशमें

ब्रह्ममय कमलके ऊपर विराजमान भगवान्‌ विष्णुके

प्रसाद (अनुग्रह)-का तबतक चिन्तन करता रहे,

जबतक कि सारी चिन्ताका नाश न हो जाय।

तत्पश्चात्‌ व्यापक ईश्वररूपसे स्थित होकर परम

शान्त्‌, निरञ्जन, निराभास एवं अर्द्धचन्धस्वरूप

सम्पूर्ण महाभावका जप और चिन्तन करे। जबतक

गुरुके मुखसे जीवात्ाको ब्रह्मका ही अंश (या

साक्षात्‌ ब्रह्मरूप) नहीं जान लिया जाता, तबतक

यह सम्पूर्ण चराचर जगत्‌ असत्य होनेपर भी

सत्यवत्‌ प्रतीत होता है। उस परम तत्त्वका साक्षात्कार

हो जानेपर ब्रह्मासे लेकर यह सारा चराचर जगत्‌,

प्रमाता, मान और मेय (ध्याता, ध्यान और ध्येय )--

सब कुछ ध्यानगत हृदय-कमलमें लीन हो जाता

है। जप, होम और पूजन आदिको माताकी दी

समय साधकका चित्त नष्ट नहीं होता। वह पुनः | हुई मिठाईकी भाँति मधुर एवं लाभकर जानकर

अपने अन्तःकरणद्वारा ध्यानमें लग जाय और | बिष्णुमन्त्रके द्वारा उसका श्रद्धापूर्वक अनुष्ठान करे।

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