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आसन है, जानकर मनुष्य अपने सब दुःखोंसे

छुटकारा पा जाता है। उस कमलकर्णिकाके

मध्यभागे ओङ्कारमय ईश्वरका ध्यान करे। उनकी

आकृति शुद्ध दीपशिखाके समान देदीप्यमान एवं

अँगूठेके बराबर है। वे अत्यन्त निर्मल हैं।

कदम्बपुष्यके समान उनका गोलाकार स्वरूप

ताराकौ भाँति स्थित है। अथवा कमलके ऊपर

प्रकृति ओर पुरुषसे भी अतीत परमेश्वर विराजमान

हैं, ऐसा ध्यान करे तथा परम अक्षर ओंकारका

निरन्तर जप करता रहे। साधकको अपने

मनको स्थिर करनेके लिये पहले स्थूलका ध्यान

करना चाहिये। फिर क्रमशः मनके स्थिर हो

जानेपर उसे सूक्ष्म तत्त्वके चिन्तने लगाना

चाहिये ॥ १२--२६६॥

(अब कमल आदिका ध्यान दूसरे प्रकारसे

बतलाया जाता है--) नाभि-मूलमें स्थित जो

कमलकी नाल है, उसका विस्तार दस अँगुल है ।

नालके ऊपर अष्टदल कमल है, जो बारह अँगुल

विस्तृत है । उसकी कर्णिकाके केसरमें सूर्य, सोम

तथा अग्नि - तीन देवताओंका मण्डल है । अग्नि-

मण्डलके भीतर शङ्खं, चक्र, गदा एवं पद्म धारण

करनेवाले चतुर्भुज विष्णु अथवा आठ भुजाओंसि

युक्त भगवान्‌ श्रीहरि विराजमान हैं। अष्टभुज

भगवान्‌के हाथोंमें शङ्ख - चक्रादिके अतिरिक्त

शार्ड्रधनुष, अक्षमाला, पाश तथा अङ्कुश शोभा

पाते हैं। उनके श्रीविग्रहका वर्णं श्वेत एवं सुवर्णके

समान उद्दी्त है। वक्षःस्थले श्रीवत्सका चिह्न ओर

कौस्तुभमणि शोभा पा रहे है। गलेमे वनमाला और

सोनेका हार है। कानों मकराकार कुण्डल

जगमगा रहे हैं। मस्तकपर रलमय उज्वल

किरीट सुशोभित रै। श्रीअद्ञोंपर पीताम्बर

शोभा पाता है। वे सब प्रकारके आभूषणोंसे

अलंकृत है । उनका आकार बहुत बड़ा अथवा

एक बित्तेका है। जैसी इच्छा हो, वैसी ही छोटी

या बड़ी आकृतिका ध्यान करना चाहिये । ध्यानके

समय ऐसी भावना करे कि “गै ज्योतिर्मय ब्रह्म

हूँ-मैं ही नित्यमुक्त प्रणवरूप वासुदेवसंज्क

परमात्मा हूँ।' ध्यानसे थक जानेपर मन्तरका जप

करे और जपसे थकनेपर ध्यान करे । इस प्रकार जो

जप और ध्यान आदिमे लगा रहता है, उसके ऊपर

भगवान्‌ विष्णु शीघ्र ही प्रसन्न होते है । दूसरे-दूसरे

यज्ञ जपयज्ञकी सोलहवीं कलाके बराबर भी नहीं

हो सकते। जप करनेवाले पुरुषके पास आधि,

व्याधि और ग्रह नहीं फटकने पाते। जप केसे

भोग, मोक्ष तथा मृत्यु-विजयरूप फलकी प्राति

होती है ॥ २७--३५॥

इस प्रकार आदि आग्नेय महापुराणमों 'ध्यानतिरूपण” नामक

तीन सौ चाहत्तरवाँ अध्याय पूरा हुआ# ३७४ ॥

तीन सौ पचहत्तरवाँ अध्याय

धारणा

अग्निदेव कहते है-- मुने ! ध्येय वस्तुमें जो | 'अमूर्त' धारणा कहते है । इस धारणासे भगवानृकी

मनकी स्थिति होती है, उसे " धारणा" कहते है । | प्राति होती है । जो बाहरका लक्ष्य है, उससे मन

ध्यानकी ही भाँति उसके भी दो भेद हैं-- | जबतक विचलित नहीं होता, तबतक किसी भी

“साकार” और ' निराकार ' । भगवानूके ध्यानम जो | प्रदेशमे मनकी स्थितिको ‹ धारणा कहते है ।

मनको लगाया जाता है, उसे क्रमशः "मूर्त और | देहके भीतर नियत समयतक जो मनको रोक

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