चित्तको जो विजातीय प्रतीतियोंसे रहित प्रतीति
होती है, उसको भी “ध्यान' कहते हैं। जिस
किसी प्रदेशमें भी ध्येय वस्तुके चिन्तनमें एकाग्र
हुए चित्तको प्रतीतिके साथ जो अभेद-भावना
होती है, उसका नाम भी 'ध्यान' है। इस प्रकार
ध्यानपरायण होकर जो अपने शरीरका परित्याग
करता है, वह अपने कुल, स्वजन और मित्रोंका
उद्धार करके स्वयं भगवत्स्वरूप हो जाता है। इस
तरह जो प्रतिदिन एक या आधे मुहूर्ततक भी
श्रद्धापूर्वक श्रीहरिका ध्यान करता है, वह भी
जिस गतिको प्राप्त करता है, उसे सम्पूर्ण महायज्ञोंके
द्वारा भी कोई नहीं पा सकता॥ १--६॥
तत्त्ववेत्ता योगीको चाहिये कि वह ध्याता,
ध्यान, ध्येय तथा ध्यानका प्रयोजन--इन चार
बस्तुओंका ज्ञान प्राप्त करके योगका अभ्यास करे।
योगाभ्याससे मोक्ष तथा आठ प्रकारके महान्
ऐश्बर्यों (अणिमा आदि सिद्धियों)-की प्राप्ति
होती है। जो ज्ञान-वैराग्यसे सम्पन्न, श्रद्धालु,
क्षमाशील, विष्णुभक्त तथा ध्यानमें सदा उत्साह
रखनेवाला हो, ऐसा पुरुष ही 'ध्याता' माना गया
है। “व्यक्त और अव्यक्त, जो कुछ प्रतीत होता है,
सब परम ब्रह्म परमात्माका ही स्वरूप है "इस
प्रकार विष्णुका चिन्तन करना *ध्यान' कहलाता
है। सर्वज्ञ परमात्मा श्रीहरिको सम्पूर्ण कलाओंसे
युक्त तथा निष्कल जानना चाहिये। अणिमादि
ेश्वर्योकी प्राप्ति तथा मोक्ष-ये ध्यानके प्रयोजन
हैं। भगवान् विष्णु ही कर्मोके फलकी प्राप्ति
करानेवाले हैं, अत: उन परमेश्वरका ध्यान करना
चाहिये। वे ही ध्येय हैं। चलते-फिरते, खड़े होते,
सोते-जागते, आँख खोलते और आँख मींचते
समय भी, शुद्ध या अशुद्ध अवस्थामें भी निरन्तर
परमेश्वरका ध्यान करना चाहिये॥ ७--११३॥
इृदयकमलरूपी पीठके मध्यभागमें भगवान् केशवकी
स्थापना करके ध्यानयोगके द्वारा उनका पूजन
करे। ध्यानयज्ञ श्रेष्ठ, शुद्ध और सब दोषोंसे रहित
है। उसके द्वारा भगवानूका यजन करके मनुष्य
मोक्ष प्राप्त कर सकता है। बाह्मशुद्धिसे युक्त
यज्ञोंद्वारा भी इस फलकी प्राप्ति नहीं हो सकती।
हिंसा आदि दोषोंसे मुक्त होनेके कारण ध्यान
अन्तःकरणकी शुद्धिका प्रमुख साधन और चित्तको
वशमें करनेवाला है। इसलिये ध्यानयज्ञ सबसे श्रेष्ठ
और मोक्षरूपी फल प्रदान करनेवाला है; अतः
अशुद्ध एवं अनित्य बाह्म साधन यज्ञ आदि
कर्मोका त्याग करके योगका ही विशेषरूपसे
अभ्यास करे। पहले विकारयुक्त, अव्यक्त तथा
भोग्य-भोगसे युक्तं तीनों गुर्णोका क्रमशः अपने
हदये ध्यान करे। तमोगुणको रजोगुणसे आच्छादित
करके रजोगुणको सत््वगुणसे आच्छादित करे।
इसके बाद पहले कृष्ण, फिर रक्त, तत्पश्चात्
श्वेतवर्णवाले तीनों मण्डर्लोका क्रमशः ध्यान करे।
इस प्रकार जो गुणोंका ध्यान बताया गया, वह
"अशुद्ध ध्येय” है। उसका त्याग करके “शुद्ध
ध्येय "का चिन्तन करे । पुरुष (आत्मा) सत्त्वोपाधिक
गुर्णोसे अतीत चौबीस तत्त्वोंसे परे पचीसवाँ तत्त्व
है, यह “शुद्ध ध्येय ' है । पुरुषके ऊपर उन्हीकी
नाभिसे प्रकट हुआ एक दिव्य कमल स्थित है,
जो प्रभुका एेश्वर्य ही जान पड़ता है। ठसका
विस्तार बारह अंगुल है । वह शुद्ध, विकसित तथा
श्वेत वर्णका है । उसका मृणाल आठ अंगुलका है ।
उस कमलके आठ पर्तोको अणिमा आदि आठ
शर्व जानना चाहिये । उसकी कर्णिकाका केसर
“ज्ञान ' तथा नाल "उत्तम वैराग्य" है। “विष्णु-
धर्म' ही उसकी जड़ है। इस प्रकार कमलका
चिन्तन करे। धर्म, ज्ञान, वैराग्य एवं कल्याणमय
अपने देहरूपी मन्दिरके भीतर मनमें स्थित | ऐश्वर्य-स्वरूप उस श्रेष्ठ कमलको, जो भगवान्का