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निकलते हैं और वह जीव इच्छानुसार लोकोंमें

जाता है। अन्तकाल आनेपर प्राण अपानमें स्थित

होता है। तमके द्वारा ज्ञान आवृत हो जाता है,

मर्मस्थान आच्छादित हो जाते हैं। उस समय जीव

वायुके द्वारा बाधित हो नाभिस्थानसे विचलित

कर दिया जाता है; अत: वह आठ अ्गोवाली

प्राणोंकी वृत्तियोंकों लेकर शरीरसे बाहर हो जाता

है। देहसे निकलते, अन्यत्र जन्म लेते अथवा नाना

प्रकारकी योनियोंमें प्रवेश करते समय जीवको

सिद्ध पुरुष और देवता ही अपनी दिव्यदृष्टिसे

देखते हैं। मृत्युके बाद जीव तुरंत ही आतिवाहिक

शरीर धारण करता है। उसके त्यागे हुए शरीरसे

आकाश, वायु ओर तेज--ये ऊपरके तीन तत्त्वोंमें

मिल जाते हैं तथा जल और पृथ्वीके अंश नीचेके

तत्त्योंसे एकीभूत हो जाते हैं। यही पुरुषका

"पञ्चत्वको प्राप्त होना' माना गया है। मरे हुए

जीवको यमदूत शीघ्र ही आतिवाहिक शरीरमें

पहुँचाते हँ । यमलोकका मार्गं अत्यन्त भयंकर

और छियासी हजार योजन लंबा है। उसपर ले

जाया जानेवाला जीव अपने बन्धु-बान्धवोंके दिये

हुए अन्न-जलका उपभोग करता है। यमराजसे

मिलनेके पश्चात्‌ उनके आदेशसे चित्रगुप्त जिन

भयंकर नरकोंकों बतलाते हैं, उन्हीको बह जीव

प्राप्त होता है। यदि वह धर्मात्मा होता है, तो

उत्तम मार्गोंसे स्वर्गलोककों जाता है॥ १--१२॥

अब पापी जीव जिन नरकों और उनकी

यातनाओंका उपभोग करते हैं, उनका वर्णन

करता हूँ। इस पृथ्वीके नीचे नरककी अट्टाईस ही

श्रेणियाँ हैं। सातवें तलके अन्तमें घोर अन्धकारके

भीतर उनकी स्थिति है। नरककी पहली कोटि

'घोरा'के नामसे प्रसिद्ध है। उसके नीचे 'सुघोरा 'की

स्थिति है। तीसरी 'अतिघोरा', चौथी 'महाघोरा'

और पाँचवीं 'घोररूपा' नामकी कोटि है। छठीका

362 अग्नि पुराण २७

नाम 'तरलतारा' और सातवींका 'भयानका' है।

आठवीं 'भयोत्कटा', नवीं “कालरात्रि' दसवीं

“महाचण्डा', ग्यारहवीं “चण्डा', बारहवीं

"कोलाहला', तेरहवीं 'प्रचण्डा', चौदहवीं “पढ्मा'

और पंद्रहवीं 'नरकनायिका' है। सोलहवीं “पद्मावती ',

सत्रहवीं 'भीषणा', अठारहवीं 'भीमा', उन्नीसवीं

“करालिका', बीसवीं “विकराला, इकीसवीं

*महावज़ा', बाईसवीं 'त्रिकोणा' और तेईसर्वी

“प्चकोणिका ' है। चौबीसरवीं “सुदीर्घा', पचीसवीं

"वर्तुला, छब्बीसवीं “सप्तभूमा', सत्ताईसवीं

'सुभूमिका' और अट्ठाईसवीं “दीघ्रमाया' है। इस

प्रकार ये अट्ठाईस कोटियाँ पापियोंको दुःख

देनेवाली हैं॥ १३--१८ ॥

नरकोंकी अट्टाईस कोरियोकि पाँच-पाँच नायक

हैं (तथा पाँच उनके भी नायक हैं)। वे 'रौरव'

आदिके नामसे प्रसिद्ध हैं। उन सबकी संख्या एक

सौ पैंतालीस है--तामिस्न, अन्धतामिस्र, महारौरव,

रौरव, असिपत्रवन, लोहभार, कालसूत्रनरक,

महानरक, संजीवन, महावीचि, तपन, सम्प्रतापन,

संघात, काकोल, कुड्मल, पूतमृत्युक, लोहशङ्कु,

ऋजीष, प्रधान, शाल्मली वृक्ष ओर वैतरणी नदी

आदि सभी नरकोँको 'कोटि-नायक' समझना

चाहिये। ये बड़े भयंकर दिखायी देते हैं। पापी

पुरुष इनमेंसे एक-एकमें तथा अनेकमें भी डाले

जाते हैं। यातना देनेवाले यमदूतोंमें किसीका मुख

बिलावके समान होता है तो किसीका उल्लूके

समान, कोई गीदड़के समान मुखवाले हैं तो कोई

गृध्र आदिके समान। वे मनुष्यकों तेलके कड़ाहेमें

डालकर उसके नीचे आग जला देते हैं। किन्हींको

भाड़में, किन्हींको ताँबे या तपाये हुए लोहेके

बर्तनोंमें तथा बहुतोंको आगकी चिनगारियोंमें

डाल देते हैं। कितनोंकों वे शूलीपर चढ़ा देते हैं।

बहुत-से पापियोंको नरकमें डालकर उनके टुकड़े-

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